Thursday, June 29, 2006

दास्ताने-काश्मीर


जहाँ नभ से दिल की बातें कहती
चिनार की लम्बी कतार थी
लाल गुलाबी नीले पीले
फूलों की भरमार थी

जहाँ झर झर झरते झरनों की
झाझंर में झनकार थी
केसर की कलियों से महकी
बहती मन्द बयार थी

जहां चाँद से चेहरों की चितवन में
इक विश्वास समाया था
उस वादी में स्वयं सृष्टि ने
कर स्वर्ग बसाया था

वही सृष्टि है वही नज़ारे
वही काश्मीर की धरती है
पर फ़िरन धर्म का पहन ज़िन्दगी
मौत का तांडव करती है

दो रंगों के फूलों में
खिंची आज तलवार है
नफरत की आँधी में बदली
ठन्डी मन्द बयार है

नभ से अब शर्मसार हुए है
ऊँचे पेड़ चिनार के
झर झर झरते झरने मानो
करते है चित्कार से

ज़ाफरान के खेतों में
बारूद बनाया जाता है
नींद नहीं जो आती तो
गोली से सुलाया जाता है

चाँद से चेहरों की चितवन में
अब इक ख़ौफ समाया है
सृष्टि के इस अतुल्य स्वर्ग को
असुरों ने नरक बनाया है ।।

4 comments:

Manish Kumar said...

ज़ाफरान के खेतों में
बारूद बनाया जाता है
नींद नहीं जो आती तो
गोली से सुलाया जाता है

चाँद से चेहरों की चितवन में
अब इक ख़ौफ समाया है
सृष्टि के इस अतुल्य स्वर्ग को
असुरों ने नरक बनाया है ।।

क्या बात है रत्ना जी भाव और लय दोनों दृष्टियों से कविता बेहद अच्छी बन पड़ी है । काश्मीर की त्रासदी को बखूबी उभारा है आपने !

Tarun said...

बहुत खूब रत्ना, पूरी कविता ही अच्छी है लेकिन अंतिम ३ छंद का तो जवाब ही नही..

ई-छाया said...

अच्छी कविता है, गहरी अभिव्यक्ती

प्रेमलता पांडे said...

'........सृष्टि के इस अतुल्य स्वर्ग को
असुरों ने नरक बनाया है'
भाव और भाषा अति मोहक।
प्रेमलता