Friday, September 08, 2006

भांति भांति की दालें

दालों में प्रोटीन की मात्रा 20% से 25% तक होती है। यह गेहूँ से लगभग दुगनी और चावल से तिगुनी है तथा अण्डे, दूध और मांसाहार से मिलने वाली मात्रा से कुछ अधिक है। शायद इसी कारण दाल को गरीबों का प्रोटीन-पुंज भी कहा गया है। भारत के अधिकतर शाकाहारी लोगों के लिए दालों का महत्व इस बात से सपष्ट हो जाता है कि दुनिया में दालों का आयात करने वाले देशों में भारत पहले नम्बर पर है।


1.पालक और चने की दाल

सामग्री---

चने की दाल- एक कटोरी

पालक-- 250 ग्राम

प्याज़- एक

टिमाटर- एक

अदरक- एक इन्च का टुकड़ा

हरी मिर्च-- दो

नमक-- ¾ छोटा चम्मच

हल्दी---1/2 चम्मच
मक्खन
- इच्छा-अनुसार

विधी----

. चने की दाल को धोकर घंटे भर पानी में भीगने दें।

. पालक और मिर्च को धो कर डंडी निकाल कर काट लें।

. अदरक और प्याज़ छील कर काट लें। टिमाटर धोकर काट लें।

. दाल,पालक, मिर्च,प्याज़, टिमाटर, अदरक, नमक, हल्दी और एक कप पानी कूकर मे डालें।

. तेज़ आंच पर सीटी आने तक रखें और फिर आँच हल्की कर 15 मिनिट तक पकाएं।

. कूकर ठंडा होने पर खोल कर कड़छी से अच्छे से हिला कर पलटें।

. ऊपर से मक्खन डाल कर खाएं।

टिप्स---

. अपने स्वाद अनुसार दाल को गहरा और पतला कर सकते है।

. सब्ज़ियों को बहुत छोटे टुकड़ों में काटने की ज़रूरत नहीं है।
३. पानी की मात्रा कम कर आधा कप दूध डाल पकानेे से स्वाद बड़ जाता है।

क्रमश: ---

Thursday, September 07, 2006

एक नई शुरूवात

जगदीश भाई के आईने ने जब हमें दिखाया कि हम कौन से नम्बर के मेहमान है तो हम शर्म से पानी पानी हो गए। जी नहीं, उनके आइने में झांकने वाले हम 420 नम्बर के मेहमान नहीं थे, शर्मिन्दा तो हम 'मेहमान' शब्द पढ़ कर हुए थे क्योंकि जहां यह उनकी सुरुचि दिखा रहा था, वहीं हमारे बेढब तौर तरीके की ओर भी इशारा कर रहा था। इतने दिनों से हमारी रसोई में ढेरों मेहमान आ रहे है और हम उन्हें केवल ख्यालों के पुलाव पर टरका रहे है। कितने बेचारे अच्छे भोजन की आशा लिए व्यंजनों की तलाश में आए होगें और हमने उन्हें विचारों के मलवे से पटी वाक्यों की गलियों मे घुमा कर,थका कर,हंफा कर विदा कर दिया। धिक्कार है हम पर और हमारी रसोई पर। अरे! कुछ खिला नहीं सकते थे पर कम से कम अच्छे व्यंजनों की विधियां तो परोस ही सकते थे। उन्ही की महक से मुँह में आई लार से ज़रा गला तर और मन प्रसन्न हो जाता। हमने तो नारी के नाम पर ही बट्टा लगा दिया। अब कोई जीतू भाई, अनूप भाई, सागर भाई, संजय भाई, तरुण भाई ,समीर भाीई की तरह हमें भी रत्ना भाई कह जाए तो इसमें उसकी क्या गल्ती। ऐसा व्यवहार आमतौर पर पुरषों से आपेक्षित होता है। नारी जाति का तो मूल-मन्त्र ही पेट के ज़रिए दिल तक पहुंचने का है। मेहमान-नवाज़ी के गुर उन्हें घुट्टी में पिलाए जाते है। और हम नारी होकर भी अतिथी-सत्कार से चूक गए। ठीक कहता है टी.वी वाला कि भारतीए 'अतिथी देवो भव:' की सीख को भूल गए है। परन्तु देखा जाए तो इसमें हमारा कोई कसूर नहीं है, आप लोगों की संगत में हमें इतनी बातें याद आने लगी कि हम शब्दों के माया-जाल में उलझ कर रह गए। पर आगे से ऐसा नहीं होगा,हम तौबा करते है। आज से ही अपनी ब्लाग-स्पाट वाली पुरानी रसोई को नव-निर्मित कर वहां से सरल और उत्तम व्यंजन-विधियों की टिफिन सर्विस शुरू करते है। अलग स्थान से इस सेवा को आरम्भ करने का मंतव्य केवल यह है कि आप तक उत्तम क्वालिटी का सामान पहुंचे और विचारों के व्यंजनों में लगाई गई कभी हास्य और कभी वेदना की छोंक की छींटें असली पकवानों को दूषित न कर पाए। आखिर आपकी पत्नियों और अपनी भाबियों की ओर हमारा भी तो कर्त्तव्य है। आप आइए, उन्हें बुलाइए और शुभारम्भ पर फ़ीरनी से मुँह मीठा कीजिए।---

रत्ना की रैसिपीज़ लाई है व्यंजन हज़ार
रत्ना की रसोई में केवल पकते विचार



फ़ीरनी

फ़ीरनी

फ़ीरनी दूध और चावल के मिश्रण से तैयार की गई एक किस्म की खीर है। फ़रक केवल यह है कि इसमे चावल को पीस कर डाला जाता है जिस कारण इसका स्वरूप रबड़ी से अधिक मिलता है पर स्वाद खीर और रबड़ी दोनों से जुदा होता है। काश्मीरी विवाह में बारात की दावत में परम्परा के अनुसार फ़ीरनी ही परोसी जाती है। बर्फ की सिल्ली पर मिट्टी की चपनियों ( प्यालियों) में चांदी का वर्क लगी, बादाम-पिस्ता की हवाई(कतरन) से सजी, इलायची,जाफ़रान(केसर) और केवड़े से महकती ठन्डी फ़ीरनी को ज़ुबान पर रखते ही आत्मा तृप्त हो जाती है और दिमाग में केवल एक शब्द गूंजता है- अमृत-तुल्य या HEAVENLY.
हालांकि मिट्टी के बरतन में रखने से सोंधापन आता है पर कांच की कटोरी में रखी और फ्रिज में ठन्डी हुई फ़ीरनी भी काफी ज़ाएकेदार होती है।


सामग्री---

दूध- 1 लीटर फुल क्रीम
चावल- आधी कटोरी या 50ग्राम
चीनी-250 ग्राम या स्वादानुसार
छोटी इलायची- चार-पांच
केसर- दो तार या चुटकी भर
केवड़ा जल- आधा चम्मच
बादाम- 15-20
पिस्ता- 5-7
चांदी के वरक- दो

विधि-----

१.चावल को अच्छे से धो कर चार घन्टे तक पानी में भीगने दें ।
२.सिल पर या मिक्सी में डाल एक कनी रहने तक दरदरा पीस लें।
३.पिसे चावल में आधा कप पानी मिला कर घोल बना थोड़ा पतला कर लें।
४.दूध में छिलके समेत दो इलायची डाल भारी तले के बरतन में चढ़ा कर उबलने दें।
५.जब दूध लगभग तीन पाव रह जाए तो चावल के पतले घोल को हिला कर धीरे धीरे एक धार से दूध में डालें।
६.पिसा हुया चावल बहुत जल्दी तले में चिपकता है इसलिए लगातार दूध में कड़छी चलाते रहें।
७.गहरा होने पर चीनी डालें और पाँच मिनिट और पका कर गैस बंद कर दें।
८.ठंडा होने पर उसमें केसर,और इलायची पीस कर और केवड़ा डालें।
९.परोसने वाले पात्र में पलटें।
१०.चांदी का वरक लगा, बादाम और पिस्ते की कतरन ऊपर से बुरक दें।
११.फ्रिज में रख ठन्डा होने पर खाएं।

टिप्स---

१.बादाम और पिस्ते की हवाई (कतरन) काट कर बोतल में बंद कर फ्रिज मे कई दिन तक रखी जा सकती है।
२.बीस ग्राम छोटी इलायची के दानें और आधा ग्राम केसर मिला कर पीस कर बोतल में रख लें। इस्तेमाल में आसानी रहेगी।
३.दूध औटाते वक्त बरतन में कड़छी डालने से दूध की उबल कर गिरने की संभावना कम हो जाती है।
४.कन्डेंसड दूध मिलाने से दूध कम गहरा करना पड़ता है।
५. रुपहले कटोरे में पलट कर सुनहरे चम्मच से फ़ीरनी परोसने पर शाही अन्दाज़ का गुमान होता है।

Saturday, July 29, 2006

सफ़र के साथियो को सलाम

आज शनिवार है और कल इतवार,अर्थात आज आधे दिन का आराम व कल पूर्ण विश्राम। सो सोचते है कि आगे का सफरनामा (ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस तक-भाग तीन ) तो हम सोमवार को सुनाएं, परन्तु अपने साथ सफ़र में सवार और हमारी पीड़ा में भागीदार श्रद्धालू-जन की शंकाओं का समाधान, टिप्पणियों की व्याख्या और प्रशंसा का अमृत पिलाने वालों का धन्यवाद आज ही करदें ताकि वे भी शांत एवं प्रसन्न मन से छुट्टी का आनन्द उठाएं और हम भी यह ढेड़ दिन पूर्ण रूप से अपने पतिदेव की सेवा में बिताएं, देव कृपा का थोड़ा मोल चुकाएं और अपना अगला जन्म सधाएं। वैसे हमारी हार्दिक इच्छा थी कि प्रत्येक साथी जन का जिक्र करते समय उसका नाम कुछ ऐसे लिखें कि करसर का स्पर्श पाते ही वह नाम प्रकाशमय हो जाए और बटन दबाते ही जिज्ञासु सीधा उस महान आत्मा के दर्शन का लाभ पा लें पर क्योंकि पिछले ढाई मास के कड़े परिश्रम के बाद भी हम यह कला नहीं सीख पाएं है सो अपने अल्प ज्ञान के लिए क्षमा प्रार्थी है।
सबसे पहले अनूप जी से शुरूवात करते है। भाई जी, गद्य की अपेक्षा हम पद्य गाना इस कारण पसन्द करते है क्योंकि पद्य लिखने केलिए कम टाइप करना पड़ता है। हमारे पास टाइप करने हेतु केवल तर्जनी ही है अत: उस पर काम का अधिक बोझ नहीं डालना नहीं चाहते।अगर रुष्ट होकर अकड़ गई तो हमारी सारी व्यवस्था ही डोल जाएगी। अन्य उगंलियों को नोटिस भेजा है जैसे ही काम पर आ जाएंगी आपका अनुकरण करते हुए गद्य में पद्य पिरो कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर देगें। दूसरा-- भेजा-बाज़ार में जब ताज़ी मौसमी तरकारी उपलब्ध नहीं होती तो हम डायरी के कोल्ड-स्टोरेज़ से कविता निकाल कर परोस देते है ताकि रसोई का चुल्हा बुझने न पाए। तीसरा- हम नारी स्वभाव से पीड़ित है। दिमाग से अधिक दिल को प्राथमिकता देते है और यह सत्य तो आप स्वीकारेंगे कि गद्य दिमाग की और पद्य दिल की उपज है। ज़रा सुनिए यह सप्तम स्वर कहाँ गूंज रहा है--


जब से हमने ब्लाग बनाया
और की शुभ शुरूवात
छाया जी आप संग चले हैं
दर पोस्ट हमारे साथ
आपको कैसे नमन करें हम
कैसे आभार जताएं
गुड़ खाकर हम भए है गूंगे
अब कैसे स्वाद बताएं ।।


नारद मुनि को हमारा सादर प्रणाम। जीतु भाई, आपने दर्शन बीस तारिख को दिए थे जबकि हमने कथा केवल उन्नीस तक की सुनाई है। अधिक अधीर न हों, बीस तारिख की गाथा (सोमवार को होने वाली ) में हम आपका उचित सत्कार करेंगे। दूसरा- सफरनामे का आरम्भ ब्लागस्पाट कस्बे से किया है पर अन्त वर्डप्रेस नगरी में होगा। तीसरा- नारद जैसे ज्ञानी अगर कन्फ्यूज़ हो सकते है तो हम जैसे तुच्छ जीवों की क्या बिसात। इस विचार ने घावों पर मरहम का काम किया है। चौथा- दोनों रसोइयों का विलय कर नया नाम " रत्ना रेस्ट्रोरेन्ट " करने का विचार है। ढाबे पर आकर बैठना लोगों को कम पसंद आ रहा है। अत: नामकरण संस्कार की क्या विधी है, कृपया मार्ग दर्शन करें।
मानोशी दीदी, प्रेमलता जीजी और प्रत्यक्षा जी आदर सहित स्नेह युक्त नमस्कार। सफर में महिला साथी न हो तो बातचीत का मज़ा ही नहीं आता। वे ही तो कभी मनोशी दीदी की तरह पीठ ठोंकती है,कभी लता जीजी समान मिश्री के शब्दों का शरबत पिलाती है और कभी प्रत्यक्षा जी की तरह आगे बात चलाने केलिए जिज्ञासा दिखाती है।साथ न छोड़िएगा आपके रहने से हमें काफी सहारा है।
आशीश भाई अब आप एक राज़ की बात गुपचुप कान करीब लाकर सुनिए। ऐवें शब्द हम पंजाबी इलाके से स्मगल करके लाए है। किसी से कहना मत। कभी कभार आप भी इस्तमाल कर लेना कोई घिस थोड़े ही जाएगा । इसी लेन देन पर तो दुनिया कायम है।
इस कान में फूंकें मंतर के संग ही आज की सभा समाप्त होती है।सोमवार को आपको बोर करने फिर हाज़िर होगें। तब तक हमारे लिए दुआ किजीए। मनीष भाीई आपकी दुआ के चलते ही वर्डप्रेस तक पहुंच पाएंगे ।दिल खोल कर दीजिए क्योंकि--

तुम एक दुआ दोगे हम दस लाख देगें

Friday, July 28, 2006

ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस तक का सफ़र- भाग दो

द्वितीय चरण --------


सुबह आँख खुलते ही बिना दाँत चमकाए, बिना चेहरा छपाकाए, बिना बेड-टी सुड़काए, बिना पतिदेव को प्रेम से जगाए और बिना महादेव को शीश नवाए, हम बिस्तर से सीधे अपने ढाबे पर गिफ्टस ( टिप्पणियों ) का जायज़ा लेने जा पहुँचे । वहाँ जो नज़ारा देखा तो नींद से बोझिल आँखों को दो चार बार मला कि कहीं खड़े खड़े सो गए हो तो इस बुरे सपने से जग जाएं, हाथ पर चिकोटी भी काटी ताकि प्रूफ मिल जाए कि जो दिखाई दे रहा है वो वास्तव में सच है और जब बारीक सा नील का निशान बेहद साफ दिखाई पड़ा तो दिमाग ने ओवर-टाइम कर झट यह नतीजा निकाला कि हम हिन्दी चिट्ठा जगत् से निष्कासित कर दिए गए है । तभी तो ग्रह-प्रवेश के दिन भी कोई पकवान खाने तो क्या पानी पीने तक नहीं आया । हैरान परेशान दिल परन्तु यह मानने को तैयार नहीं हुया । आखिर जब हमने किसी से पंगा नहीं लिया, जितनी गिफ्ट(टिप्पणियां) मिली उतनी कमोबेश तोल कर वापिस कर दी, अच्छे नागरिक की तरह नियम कानून का पालन किया, परिचर्चा कल्ब मे भी आते जाते रहे फिर क्यों कोई हमारा हुक्का पानी बंद कर देगा। ज़रूर भगवान जी नराज़ हो गए है तभी सत्यनारायण-व्रत कथा की वणिक कन्या के समान कुछ का कुछ दिखाई दे रहा है । नहा धो कर प्रसाद खा कर आएं तो सब ठीक हो जाएगा । भारी मन से अपना काम निपटाया , पतिदेव को नाश्ता करवाया, तदोपरांत महादेव को दूध से नहलाया और मन में नन्हीं सी आशा लिए अपने ढाबे पर आ गए । दृश्य अभी भी जस का तस था । दिमाग कुलबुलाया पर दिल ने दलील दी कि अभी अभी धमाका हुया है लोग इधर उधर अटके हुए है, आवा जाही रुकी हुई है सो हो सकता है कि कोई यहाँ तक नहीं पहँच पा रहा है तो चलो हालात का जायज़ा लेने अक्षरग्राम/नारद के स्टेशन पर चलते है । वहीं यह भी देख लेगें कि हमारे पकवान का स्टाल एक नम्बर प्लेटफार्म पर है या दो, तीन या चार पर पहुँच गया है।
नारद स्टेशन पर लोग परेशान थे, मदद की पुकार लग रही थी । फिर भी स्थिति नियन्त्रण में थी । हम पाँच नम्बर प्लेटफार्म तक घूम आए पर हमारा स्टाल कहीं दिखाई नहीं दिया तो माथा ठनका कि ज़रूर कोरियर सर्विस में गड़बड़ी हुई है जब Sample ही नहीं पहुँचा तो लोग माल को कैसे जांचेगें और कैसे आंकेगे । सो गड़बड़ी का पता लगाने के लिए हम सर्वज्ञ जी के पास जा पहुँचे। उनकी पहली गेंद " mySQL में डाटाबेस क्रियेट कीजिए " सिर के ऊपर से निकल गई और बाकी की सब गेंदे आजू-बाजू से और हमारा स्कोर आखरी गेंद तक ज़ीरो रहा । वर्डप्रेस की पारी खेलने केलिए उन्होंने जो जो कहा था वो हमने नहीं किया था। जब वर्डप्रेस स्थापित ही नहीं किया तो गाड़ी कैसे चलेगी ? यह सोच हम मेन पैविलियन में गए और MyComputer,Places,Desktop,यहाँ तक कि Trash भी खंगाल आए पर mySQL नहीं मिला। हार कर वर्डप्रेस की गलियों में उसे खोजने चले। वहाँ पर वर्डप्रेस सिखाने का एक स्कूल दिखा तो हम मेन गेट खोल अन्दर घुस लिए पर स्कूल इतना बड़ा था कि Getting Started With WordPress का दरवाज़ा खोल जो भीतर गए तो दरवाजा दर दरवाज़ा खुलता गया और हम चक्करघिन्नी बनें बाहर निकलने की तरकीब भूल गए। अन्तत: Log Out करके ही बाहर आना पड़ा । पर वहाँ घूमते-घुमाते एक दरवाज़े पर Audio-Video Lessons का बोर्ड दिखा था सो फिरentry ली और दर दर लुढ़कते -पुढ़कते उस दरवाजें में जा घुसे। वहाँ भी सर्वज्ञ जी वाला आलाप चल रहा था सो नाक तक पके हुए हम बाहर आ गए और ठुड्डी पर हाथ धरे, बुड्ढे तोते पढ़ नहीं सकते और भैंस को बीन के सुर नहीं पचते की सत्यता पर विचार कर ही रहे थे कि पतिदेव की कार का दरवाजा खुलने बंद होने की खटाक से हमारी तन्द्रा टूटी तो पाया कि पिछले आठ घन्टे से हम लगभग लगातार वर्डप्रेस की गलियों में खाक छान रहे थे । इससे पहले कि देवों की तरह पतिदेव भी क्रोधित हो जाएं और ब्लागस्पाट की तरह हमारी ब्लोगिंग पर भी प्रतिबन्ध लग जाए, हमने प्रिय कम्प्युटर जी से, पतिदेव के काम पर जाते ही ,कल फिर मिलने का वादा कर, भारी मन से विदा ली।

इति द्वितीय चरण समाप्त ।।

Thursday, July 27, 2006

ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस तक का सफ़र - भाग एक

बहुत सालों से उपहार में मिली डायरियों का सद्-उपयोग ( ??? ) हम मन की भड़ास निकालने केलिए करते थे पर जब पतिदेव के एक मित्र ने, जो कम्प्यूटर के महारथी और कई ब्लागों के स्वामी है हमें ब्लागिंग का गुरूमन्त्र दिया तो मानो बन्दर के हाथ झुनझुना लग गया। हम भूख-प्यास भूल ब्लागस्पाट की ट्रैक पर सरपट दौड़ पड़े, कीर्तिमान बनाया, वज़न भी घटा लिया क्योंकि कुछ तो ऊपरी माला का फालतू समान घट रहा था और कुछ की-बोर्ड पर ओवर-टाइम करते हाथ हर समय मुँह में छुट-पुट डालने में असमर्थ थे। यानि हर काम सुचारू रूप से चल रहा था और हम आम के मौसम में गुठलियों के दाम भी वसूल रहे थे कि एक धमाका हुया -- ब्लागस्पाट के इलाके में कर्फ़्यु लग गया और उस ओर जाने वाली सब गाड़ियां बंद । अक्षरग्राम/नारद के जंक्शन पर खड़े हम काफी देर वर्डप्रेस की ट्रैक पर दौड़ती गाड़ियों को टुकुर-टुकुर देखते रहे और फिर एक गाड़ी पकड़ उस पौश इलाके का जायज़ा लेने वर्डप्रेस के स्टेशन पर पहुँच गए । स्टेशन पर पैर धरते ही चट नाम पूछा गया और पट एक फ्लैट हमारे नाम कर दिया गया,वो भी फ्री में। हम खुश- वाह भई ! ऊँची दुकान, मालिक मेहरबान और फ्री का सामान। सच में उपभोक्ता का ज़माना है। काश हम उस समय अपने सितारे पढ़ पाते क्योंकि उस पल के साथ ही शुरू हुया हमारा एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे में गिरने निकलने का कष्टमयी सफर ।

प्रथम चरण------

फ्लेट मिलते ही हमें पता चला कि अन्दर तभी जा पाएंगे जब मेल बाक्स से कुंजी(password ) लेकर आएगें । खुशी-खुशी भागते हुए कुंजी लेकर वापिस पहुंचे पर बार बार लगाने पर भी ताला बंद और दरबान का सपाट सा जवाब " incorrect password ” । दो चार बार मेलबाक्स घूम आए पर मामला वही ढाक के तीन पात । बड़ी देर बाद समझ में आया जिसे हम " ओ ” पढ़ रहे थे वो वास्तव में जीरो था। राम-राम करते प्रवेश किया और तुरन्त ताला बदला ,एक बार चेक किया और जब बिना अड़चन ताला खुला तो हमने घर का जोगराफिया समझना शुरू किया ।
यहाँ कैटेगरी की क्यारी थी जिसमें हम अलग-अलग सब्जियां बो सकते थे । उनका import और Export भी कर सकते थे ।ब्लागस्पाट पर केवल पोस्ट लिखते थे यहां पेज भी लिख सकते थे । दोनों में फर्क क्या है पल्ले नहीं पड़ा पर सोचा चलो धीरे धीरे पता चल ही जाएगा। State of artका इलाका था सो भाषा भी हाई-फाई थी। एडिट को मैनेज़,Comment करने को Discussion करना और ब्लाग को Site कहा जाता था खैर Accent बदलने मे कितना वक्त लगता है ,साल भर अमरीका में रहकर आई बलिया की बिल्लो जब अमरीकन स्टाइल में अंग्रेज़ी बोल सकती है तो हम Edit को Manage क्यों नहीं कह सकते । अँग्रेज़ी मे M.A कोई ऐवें ही थोड़े किया है । बढ़िया इलाके में सब सुविधायों से युक्त घर मिला है अभी कुछ बदलाव करने की ज़रूरत नहीं है बस जल्दी से कुछ मीठा पका कर नारद जी को न्योता दे आएं ,यह सोच हमने अपनी शान में कुछ कसीदे लिखे (हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं------) ,सावन की डिश पकाई और नारद जी को नए घर का पता दे आए । बड़ी देर तक जब नारद जी के दर्शन नहीं हुए तो यह लगा कि एक तो हिन्दी जगत् का बोझ ऊपर से अभी- अभी भारत यात्रा से लौटे है । आजकल ग्रह-प्रवेश के न्योते भी ज्यादा ही मिल रहे है कहीं बिज़ी होंगें। देर सवेर हो ही जाती है आएंगें ज़रूर। आखिर हम उनके पुराने भक्त है। यह सोच कर इन्तज़ार करते करते रात के एक बजे आँख झपक गई और सपना देखा कि हमारे ढाबे पर लोगों की लम्बी लाइन लगी है। नारद जी सान्ताक्लाज़ की तरह गुपचुप ढाबे की चिमनी से प्रगट हो काली घनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए पकवान का आनन्द ले टिप्पणी के खाली मोज़े में बढ़िया सा गिफ्ट डाल कर जा रहे है ।

इति प्रथम चरण समाप्त

Friday, July 21, 2006

सावन की सौगात

चन्दा के उजले चेहरे पर
घोर घटा घिर आई
गोरी के गोरे गालों पर
काली लट लहराई
लम्पट लट की इस हरकत से
गोरी तनिक तमक गई
मेघों के छूने से नभ में
चंचल चपला चमक गई
बांवरी बदरी लगी डोलने
सखी वात के साथ
अमृत अपने अंग छुपाए
पहुँची गिरीवर के पास
मधुर मिलन का संदेशा
वर्षा धरती पर लाई
घबराती शरमाती गोरी
पिया के अंक समाई
पावन प्रेम की पावस पाकर
हरित हुई हर क्यारी
गोरी के भी आँगन की
महक उठी फुलवारी
सुदूर सृष्टि में सृजित हुया
स्नेह संगम संगीत
अवनि पर अंकुरित हुई
नई संतति की रीत ।।

Wednesday, July 19, 2006

ब्लागस्पाट पर बैन छीन ले गया चैन

सावन का पहला सोमवार था । हम सुबह-सुबह शंकर जी के ध्यान में व्यस्त थे,आखिर उन्हीं की कृपा से हमारी रसोई ने हज़ार का स्कोर पूरा कर, दो सैन्चुरियां बना तीसरी केलिए लार टपकाई थी। आगे भी दिन दूनी रात चौगनी प्रगति की कामना से हम भगवन् को उनकी पसंद का प्रसाद पहुंचाने और मक्खन लगाने में जुटे थे कि कोई नासपीटा,बुरी नज़र वाला,अक्ल का दुश्मन जलकुकड़ा हमारी रसोई पर, बिना कोई नोटिस दिए ,एक बड़ा सा ताला डाल गया । मन में तो आया कि करमजले को बेलन से बेल कर तन्दूर में उतार दें पर बेलन व तन्दूर रसोई में सील-बंद और दुखदाई,मासूमों की बलि चढ़ा, आतंक फैलाकर एक आतंकवादी की तरह फुर्र । इसलिए उस दिन की सारी तपस्या पर ध्यान केन्द्रित कर श्राप दे डाला " जा दुष्ट, तेरी अक्ल का ताला तेरे भाग्य पर जा लगे ताकि तुझे दूसरो के कष्ट का अन्दाज़ा हो । पद का मद तुझे ले डूबे ।"
उसे श्राप देकर,ठण्डा पानी पीकर जब कुछ शान्त हुए तो सोचा" उसका जो होगा, सो होगा पर तेरा क्या होगा रत्ना । तेरी तो रसोई बंद, अब पिछवाड़े के चोर-दरवाज़े से एन्टरी कर भी ले पर बिजनैस तौ गिऔ । ऊपर से यह डर कि पता नहीं कब सूंघता हुया आ धमके और घर से उद्योग चलाने के लिए चलान कर दे। बेहतर यही है कि जमीन खरीद एक रेस्ट्रोरेन्ट खोल दें पर जेब (अक्ल) टटोली तो पाया कि इतनी रेज़गारी (जानकारी) पास में नही है पर फिर भी कुल जमा-पूंजी जोड़ और कुछ इधर उधर से उधार लेकर अपना ढाबा वर्ड-प्रेस पर खोलने का मन बना लिया। एक बोर्ड "रत्ना का ढाबा" वहाँ लगा कर कुछ सामान भी रख आए पर ससुरा कोई दाँव- पेंच ऐसा फंसा कि ढाबा चल न पाया। सर्वज्ञ जी से कई बार सलाह-मशवरा किया पर मामला वहीं का वहीं । अब हार कर पिछवाड़े के दरवाज़े पर स्वागतम् लिख कुछ स्कीम चला रहें है।
सुस्वागतम्
(1)-----------आप आएं, दोस्तों को लाएं और नानवेज में मटनपुलाव, चिकन बिरयानी रौग़नजोश,शामीकबाब,फिश-फिंगर्रज वगैहरा व वेज में काश्मीरी दमआलू खोया मटर,शाही पनीर,
मलाई कोफ्ता आदि का लुत्फ उठाएं । अचार चटनी पापड़ और एक बड़िया बनारसी पान फ्री में।
(2) विशेष----- पहले सौ कदरदानों को उपहार में एक आशीर्वाद
(3) नोट------- अच्छा टिप देनें वालों केलिए भविष्य में लकी ड्रा से इनाम देने की योजना पर विचार किया जा रहा है।
*************** आज हम देवें उधार कल करगें व्यापार****************
ध्यान दें--- ढाबा चलवाने मे मदद की आवश्कता है

Saturday, July 15, 2006

बालक बूढ़ा एक समान

बालक बूढ़ा एक समान
सुन कर मैं रह गई हैरान

जीवन की यह उगती भोर
वह जीवन का अन्तिम छोर

झलके इसमें शैशव काया
उसमें बढ़ती उमर का साया

इसका हर पग है विजय-गाथा
वो डर से न कदम उठाता

इसकी आँखें स्वप्न सजाएं
टूटे सपने उसे रुलाएं

वृद्ध की चीख पीड़ा की आह
किलकारी में है उत्साह

नित नए नाते नन्हा जोड़े
वृद्ध हर रिश्ते से मुँह मोड़े

होता क्षण-क्षण यह स्वाधीन
पल पल वो बनता पराधीन

यहाँ दिखती जीवन की आशा
मृत्यु भय से वहाँ निराशा

यह है सुन्दर सुख की सूरत
दुख की वो है असली मूरत

कह मन कैसे लूँ मैं मान
बालक बूढ़ा एक समान

Thursday, July 13, 2006

आप जीएं हज़ारों साल,साल के----

यह दुआ, आशीर्वाद,इच्छा,मन्नत, चाहत और शुभकामना है ,आप सब ब्लागरज़ के लिए जिनकी बदौलत हमारी रसोई एक हज़ार व्यक्तियों के समक्ष भोजन परोसने का मील-पत्थर पार कर पाई। आप में से कुछ हमारे गरीबखाने पर बिना नागा आए, हर व्यंजन का प्रेम से स्वाद लिया और हर बार अच्छा सा टिप देकर गए, ऐसे सभी कदरदानों को हमारा, एयर-इन्डिया के महाराजा के अन्दाज में, झुककर धन्यवाद। कुछ अन्य मेहरबान है जो दस्तरखान पर आए तो रोज़ ,नज़ाकत से चखकर भी गए पर तारीफ में तकल्लुफ बरत गए और टिप केवल एक-आध बार ही टपकाया, उन्हें हम लखनवी नफासत से ज़हे-नसीब कहेंगें । और जहाँ तक उन साहिबान का सवाल है, जो कभी- कदार, भूले भटके आ पहुँचे और सूंघ कर आगे बड़ गए, उन्हें भी कम से कम अंग्रेज़ी स्टाइल का THANKYOU तो कहना ही पड़ेगा, आखिर सीखे हुए मैनरज़ की इज्ज़त दाँव पर है ।शायद इस थैंक्यु की आड़ में उनके इकलौते आगमन को देखकर हमारे दिल से निकली यह आह छिप जाए---

वो आए हमारे घर ,खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको,कभी अपने घर को देखते है ।

अब उनका भी क्या कसूर । आजकल पिज्जा,बरगर,डिब्बा-बंद और टैटरा-पैक का ज़माना है सो हमने तो मन को समझा लिया है कि समय का फेर है, बाज़ार में उत्पादनों का ढेर है और प्रतिष्ठित ब्राण्ड नई कम्पनी पर सवा सेर है। इसलिए जो नहीं है उसे भूलो औऱ अंटी का माल टटोलो। काफी हिसाब-किताब किया तो पाया कि लगभग 40 से 50 लोगों ने रोज़ हमें कृतार्थ किया है। अब इस उपलब्धि को देख हम स्वयं को माँ अन्नपूर्णा की उपाधि तो नहीं दे सकते ,पाँच सितारा होटल में शेफ की जगह लिए आवेदन भी नहीं भर सकते,ढाबे के काके से पंजा लड़ाना भी मुश्किल है पर रत्ना की रसोई को सुचारू रूप से चलता गृह-उद्योग मान अपनी पीठ तो ठोंक ही सकते है आखिर बुज़ुर्गों ने कहा है अपना सम्मान स्वयं करें और क्योंकि यह भी कहा है कि शुभ सोचने से शुभ होता है अत: अपने उज्जवल भविष्य की कल्पना में यह सोचना भी हमारा धर्म हो जाता है कि हमारा उद्योग आकाश की ऊंचाईयां को छू रहा है, हम सम्मानित किए जा ऱहे है,जगह जगह चर्चे हो रहे है औऱ कोई भावी ब्लागर किसी साथी ब्लागर की तारीफ़ में कह रहा है--- “ आप बहुत बढ़िया लिखते है। आपकी रचना में रत्ना जी के लेखन की झलक है।”

अरे भई, वाह! उस आनन्दमयी समय की क्या सुखद है अनुभूति !

आप हैरान हो रहे है,हँस रहे है ?-

चलिए छोड़िए, सपने सजाना और हवाई किले बनाना तो बड़ी हिम्मत का काम है,वो भी सबके सामने, ये तो औरतों की कला है,मर्द बेचारे क्या जाने सपने सजाना,वो तो चैन से सो भी नहीं सकते। वो लोग तो गाल़िब के सुर में सुर मिला यही कहते है---

हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गाल़िब यह ख्याल अच्छा है ।।

Wednesday, July 12, 2006

देखा मैंने उसे इलाहाबाद-लखनऊ पथ पर

इलाहाबाद-लखनऊ मार्ग में ढेरों रेलवे क्रोसिंग पड़ती है ।अनगनित बार हम इस रास्ते को नाप चुके है पर एक बार भी ऐसा नहीं हुया कि सभी क्रोसिंग खुली मिली हों ।किसी न किसी क्रोसिंग पर ब्रेक ज़रूर लगती है और गाड़ी रुकते ही चना-चबेना या मूंगफली के पैकिट पकड़े,खीरा- ककड़ी और मौसमी फलों को डलिया में सजाए, पास ही अंगीठी पर भुनते भुट्टों का गुलदस्ता हाथ में थामें,बच्चों की कई जोड़ी उत्सुक आँखें कार के शीशे से चिपक अंदर तक झांक जाती है । महानगरों में टरैफिक लाइट पर इससे मिलता-जुलता नज़ारा आप रोज़ देखते होंगे और यह दृश्य इतना आम है कि बातचीत, सोच-विचार,किताब,अखबार, मोबाइल या लैप-टाप में मशगूल आप उनकी उपस्थिती से बिल्कुल अन्जान बने बैठे रहते है । परन्तु एक बार जो हमारी गाड़ी इलाहाबाद से पचास किलोमीटर दूर कुण्डा की क्रोसिंग पर रुकी तो डराइवर की घुड़की,गनर की वर्दी और छत कीी लाल-बत्ती को नज़र-अन्दाज़ करता हुया, आत्म विश्वास से भरपूर एक दस- बारह साल का बच्चा,पिछली सीट पर विराजमान, शीशा खोल सिगरेट का आनन्द लेते पतिदेव, से बोला----
बच्चा- पहाड़े सुनेंगे ?
पति- किसका जानते हो ।
ब०-- मुझे तो सबे आते है, तुमे जो याद है वो सुना दूं ।
प०-- चलो , १९ का सुनाओ
बच्चे ने बिना अटके पूरा पहाड़ा सुना डाला ।
प०-- अब १७ का सुनाओ ।
ब०- ऐसे मुफ्त में क्यों सुनाऊं,दो रुपये दोगे ?
पतिदेव की उत्सुकता जाग चुकी थी सो बोले,' जितने सुनाओगे हर एक का दो रूपया दूंगा ।
उस चतुर नन्हे सेल्सज़मैन ने फटाफट 18 से लेकर 2 तक सारे पहाड़े सुना डाले और फिर बोला ः उल्टे सुनाऊ तो क्या देंगे (2*9=18,2*8=16,2*7=14---- )
मोल-भाव तीन रुपये पर तय हुया ।
19 और 18का पहाड़ा उसने उसी तत्परता से उल्टा सुना दिया ।
पूछने पर किससे और कहाँ सीखा तो जवाब मिला-- खुदै सीखा है ।
पतिदेव ने 50 का नोट थमाते हुये कहा,-सब रखलो ,इनाम है ।
इस पर बच्चे ने पूरे अमिताभ बच्चन के अन्दाज़ में कहा -- साहिब मुझे मेरी मेहनत का पैसा दें,इनाम-विनाम मैं नहीं लेता ।
पति-- क्या काम करते हो ?
बच्चा-- गियान ( ज्ञान ) बेचता हूँ ।
और इससे पहले कि हम कुछ ओर पूछते वो किसी दूसरे ज्ञान के खरीददार की खोज में गाड़ियों की भीड़ में खो गया था। अनूप जी ने जब जानवर चराते उस बालक का जिक्र किया तो मेरे दिमाग में इस नन्हे सूरमा की तस्वीर कौंध गई और उसका आप सब से परिचय कराने का मन हुया । जब भी वहां से गुजरती हूँ तो नजरें उसे खोजती है ताकि मै उस ज्ञानी के विषय में कुछ और ज्ञान बंटोर सकूं ।

Tuesday, July 11, 2006

बाल-कविताएं

१. नन्ही मुन्नी

चिल्लाती है नन्हीं मुन्नी
मम्मी-मम्मी औ री मम्मी
मैंने काटी नहीं चिकोटी
फिर भी भैया खींचे चोटी
अब देखो है मुझे चिढ़ाता
तान अँगूठा मुँह बिचकाता
मुझसे अपना काम कराता
संग अपने पर नहीं खिलाता
जल्दी से इसको समझाओ
चाहे तो इक चपत लगाओ
पर पापा से कुछ नहीं कहना
आखिर मैं हूँ इसकी बहना ।।




२. रवि बेचारा, काम का मारा

सुबह होने को आई है
हल्की सी तरूणाई है
काला कंबल फैंक रवि ने
ली पहली अंगड़ाई है
अभी उठ कर मुस्काएगा
चाँद सा मुख दिखलाएगा
धुली धूप को धारण कर
काम पर फिर लग जाएगा
किरणों को बिखराएगा
रस्तों को चमकाएगा
देहरी देहरी दस्तक देकर
घर-घर में घुस जाएगा
ओस की परत हटाएगा
कलियों को महकाएगा
जीवन को जीवित रखने में
अपना कर्त्तव्य निभाएगा

जब पहर दूसरा आएगा
वो उकता कर झुंझलाएगा
नाक चढ़ा और भंवें सिंकोड़
धीरे धीरे गर्माएगा
घूरेगा, धमकाएगा
कहीं लू की चपत लगाएगा
धरती के रोने सुबकने पर
वो पिघल के कुछ नरमाएगा
मन ही मन अकुलाएगा
खिसियाकर आँख झुकाएगा
सांझ की मीठी घुड़की सुनकर
कोने में छिप जाएगा
हाय, कोई न उसे मनाता है
थक टूट कर वो घर जाता है
इक आग को सीने में भर कर
रोज़ खाली पेट सो जाता है

Thursday, July 06, 2006

नानी से नातिन तक--पूर्णचक्र

( 1)

मेरी नानी सुघड़ नारी
उसकी सीमा चार दिवारी
खिड़की के परदे से तकती
खुद से खुद ही बातें करती
आँचल पीछे नयन छुपाए
बात बात में नीर बहाए
अपने मन के सूनेपन से
जब कभी डर कर घबराती थी
मेरी माँ के रूप में उसको
एक किरण सी दिख जाती थी
बेटी के नवजीवन खातिर
वो घर से बाहर आई थी
खुद तो थी पराधीन मगर
"भारत छोड़ो" चिल्लाई थी ।

(2)

नानी के पदचिन्हों से आगे
माँ ने कदम बढ़ाया था
स्वयं को स्वाधीन कराने का
बीड़ा उसने उठाया था
अपने पर्दे को आग लगा
उसने मशाल बनाई थी
बेटी को भी जीने का हक है
ये गुहार लगाई थी
बेटे का हर हक उसने
बेटी को भी दिलवाया था
पूर्ण शिक्षा दे उसका
आत्म-सम्मान जगाया था

(3)

नानी और माँ के यत्नों की
फ़सलें अब फल लाई थी
स्वतन्त्र सभ्य समाज में
मैं खुली सांस ले पाई थी
जीवन पथ पर सहचर बनकर
पति का हाथ था थामा
अपना हर कर्तव्य निभा कर
हर अधिकार था मांगा
मेरी बगिया में महके थे
साँझी इच्छा से फूल
साँझी खुशियां साँझे मसले
साँझे जीवन के शूल
(4)

चाहत थी बेटी भी पाए
ऐसा समृद्ध संसार
काश यहीं पर रुक जाए
प्रगति की रफ़्तार
काल-चक्र पर कहां रुका है
समय से सब सदा हारे
बेटी की आँखों मे बस गए
नभ के कई सितारे
अम्बर को छूने की धुन में
उड़ी जो उँची उड़ान
भूल गई वो अपना घर
तन्हा रह गई सन्तान
उसकी बेटी अब चाहती है
केवल एक अधिकार
पल भर माँ का साथ मिले
पल भर माँ का प्यार
अपना हर हक पाने को
जो माँ रहती हरदम तैयार
अहम् उन्नति में वो भूली
बेटी का मौलिक अधिकार

(5)

मेरी नातिन सुन्दर प्यारी
उसकी सीमा चारदिवारी
टी.वी के पर्दे से तकती
कम्प्यूटर से बातें करती
मोटा चश्मा नयन लगाए
बात बात में नीर बहाए
अपने घर के सूनेपन से
उकता कर जब चिल्लाती है
नातिन के रूप में थकी हारी नानी
नज़र मुझे क्यो तब आती है ।

Saturday, July 01, 2006

चोर चाहें या चित्तचोर चाहिए

( १ )

है तारों की छांव
चोरी से दबे पांव
खिड़की या झरोखे से
अंधेरे में धोखे से
घर आँगन में कोई आता है
कुछ खट् से खटक जाता है
टूटते है सपने
याद आते है अपने
रुक जाती है सांसे
पथराती है आँखें
सन्नाटा सा छाता है
घर आँगन में कोई आता है
डरा कर धमका कर
हर तरह से सता कर
करके सीनाज़ोरी
धन करता है चोरी
हंगामा हो जाता है जो
घर आँगन में कोई आता है

(२ )

है सपनों का गांव
धीरे से दबे पांव
पलकों के झरोखे से
यकायक किसी मौके से
मन आँगन में कोई आता है
दिल धक् से धड़क जाता है ।
जगते है सपनें
बिसरते है अपने
गर्माती है सांसें
लजाती है आँखें
अजब नशा छाता है
मन आँगन में कोई आता है
भरमा कर रिझा कर
बहला कर फुसला कर
करके चिरौरी
दिल करता है चोरी
कोई शोर न मचाता है जो
मन आँगन में कोई आता है

( ३ )

धन जो चला जाएगाा
लौट के फिर आएगा
दिल जो कोई गंवाएगा
वापिस उसे न पाएगा
तो फिर क्यों हम
धन चोर से घबराते है
और चित्त चोर पर
सब लुटाते है

Friday, June 30, 2006

अनुगूंज२०- नेतागिरी, राजनीति और नेता

Akshargram Anugunj
बापू की प्रतिमा बनवाएं
आदर्शों की बलि चढ़ाएं
दिल से विदेशी देसी परिवेष
राजनीति ने बदला भेस

रक्षक ही भक्षक बन जाएं
नित नए हथकन्डे अपनाएं
बदलें नीति दल और भेष
ऐसे नेता रह गए शेष

गली गली दंगे भड़काएं
प्रजातन्त्र का बिगुल बजाएं
ना कोई धर्म ना जाति विशेष
ऐसे नेता रह गए शेष

कुर्सी खातिर खून बहाएं
देश का अंग-अंग बांट के खाएं
काले कर्म हैं उजले वेश
ऐसे नेता रह गए शेष

घोर घोटाले घटित कराएं
तििस पर स्वयं को सही बताएं
रोज़ कचहरी होते पेश
ऐसे नेता रह गए शेष

उमर हमारी बड़ती जाए
तारीख़ अगली पड़ती जाए
निपटे हम, ना निपटे केस
गर्दिश में गाँधी का देश

कितनी हम तफ्तीश कराएं
दूजा गाँधी ढूंढ ना पाएं
गायब गाँधी,लाठी शेष
गुमशुदा है गाँधी का देश

राजनीति अब बनी है ज़िल्लत
सही नेता की है बड़ी किल्लत
नेतागीरि बस रह गई शेष
गर्त गिरा गाँधी का देश ।।


टैगः ,

Thursday, June 29, 2006

आई एम सौरी

शीशे सा दिल तोड़ दिया
बाद में सौरी बोल दिया
शीशा कब जुड़ पाता है
प्रतिबिम्ब तक बंट जाता है
नज़र दरारें आती है
किरचें भीतर धंस जाती है

आँख में जब आँसू है आता
मन का कोना भीग सा जाता
मन की सीलन सालेगी
रिश्ते को दीमक खा लेगी
कब तक चाहत टालेगी
कब तक प्रीत संभालेगी

कैसे मन की बात बताएं
कैसे उनको हम समझाएं
तोहफ़ों से नहीं खाइयां पटती
मन की चोटें यूँ नहीं मिटती
चुभन तो टीस उठाती है
चोटें नासूर बनाती है

नासूर जो हद से बड़ता है
तन का कोइ अंग भी कटता है
उस अंग की कमी सताती है
तब याद घड़ी वो आती है
जब पहली चोट लगाई थी
और प्यार की नींव हिलाई थी ।।

दास्ताने-काश्मीर


जहाँ नभ से दिल की बातें कहती
चिनार की लम्बी कतार थी
लाल गुलाबी नीले पीले
फूलों की भरमार थी

जहाँ झर झर झरते झरनों की
झाझंर में झनकार थी
केसर की कलियों से महकी
बहती मन्द बयार थी

जहां चाँद से चेहरों की चितवन में
इक विश्वास समाया था
उस वादी में स्वयं सृष्टि ने
कर स्वर्ग बसाया था

वही सृष्टि है वही नज़ारे
वही काश्मीर की धरती है
पर फ़िरन धर्म का पहन ज़िन्दगी
मौत का तांडव करती है

दो रंगों के फूलों में
खिंची आज तलवार है
नफरत की आँधी में बदली
ठन्डी मन्द बयार है

नभ से अब शर्मसार हुए है
ऊँचे पेड़ चिनार के
झर झर झरते झरने मानो
करते है चित्कार से

ज़ाफरान के खेतों में
बारूद बनाया जाता है
नींद नहीं जो आती तो
गोली से सुलाया जाता है

चाँद से चेहरों की चितवन में
अब इक ख़ौफ समाया है
सृष्टि के इस अतुल्य स्वर्ग को
असुरों ने नरक बनाया है ।।

Tuesday, June 27, 2006

देखो कैसा खिलखिलाया है चाँद

पेड़ो के पीछे से
बादल के नीचे से
अम्बर पर देखो
निकल आया है चाँद

आँचल ढलकाए
जुल्फें बिखराए
बिस्तर पर लेटा
अलसाया है चाँद

ये मेरा प्रतिबिम्ब है
या मेरा प्रतिद्वन्दी
देखकर परस्पर
भरमाया है चाँद

पूनम की रात है
तारों का साथ है
किस्मत पर अपनी
इतराया है चाँद

फैला उजियारा है
पिया से हारा है
हरकत पर अपनी
शर्माया है चाँद

वक्त बदल जाएगा
कल रूप ढल जाएगा
भीतर ही भीतर
घबराया है चाँद

कल किसने देखा है
ये पल तो उसका है
सोचकर यह सच
मुस्काया है चाँद

देखो कैसा खिलखिलाया है चाँद
आज कुछ ज्यादा निखर आया है चाँद ।।

Sunday, June 25, 2006

वक्त के पड़ाव

कई रोज़ से परिचर्चा की कड़ाही में प्रतिक्रियायों की आँच पर टी. वी
सीरियलज़ की गर्मागर्म भजिया तली जा रही थी । एकता कपूर द्वारा
पकाए गए बाला जी के प्रसाद के प्रति भक्तों की रुचि कुछ अधिक
ही थी तो भजिया खाने और प्रसाद का स्वाद चखने को हम भी लाइन
में लग लिए ।पर जब तक अपना नम्बर आया आँच मन्दी हो गई थी
भजिया ठन्डी हो गई थी और प्रसाद के नाम पर मिली केवल उसकी
खुशबू । हमने भी इसे हरि-इच्छा और भाग्य का लेखा मान खुशबू को ही
नासिका पथ सेे मस्तक तक पहुँचा दिया । अब बाला जी के प्रसाद की
महिमा तो जगज़ाहिर है पर उसकी गन्ध तक ने क्या कमाल किया ,इसका
पूरा हाल विस्तार से सुनाते है ।धीरज धरिएगा, सफर कुछ लम्बा
है ,कथा घिसी-पिटी और बाँचनेे वाला- अब क्या कहें --------

साल दर साल भांति रेत हाथ से फिसल गए
बीती कितनी रातें न जाने कितने दिन निकल गए
साहब सफलता की अनेकों सीड़ी चड़ गए
बच्चे बड़े होकर मेरे घोंसले से उड़ गए
हर किसी की नई राह इक नया आयाम था
मेरे चारों ओर फैला ऐश-ओ-आराम था
नहीं थी जिसे पल भर फुरसत
आज वो बेकार था
धीमे धीमे रेंगती घड़ी की
सुईयों से बेज़ार था ।
करने को नहीं था कुछ भी
वक्त कटता नहीं था काटे
सोचा सीरियल के पात्रों से
सुख-दुख ही अपना बांटे

पर था हर सीरियल का
बस एक सा ही रंग
रहते थे सारे नायक
दूजी स्त्रियों के संग
देख कर यह कारीगिरी
लगा हमको एक झटका
जाकर हमारा ध्यान
साहब की हरकतों पर अटका
सरल सुशील पति के
अजब लगने लगे ढंग
बेवजह की जिरह से
आखिर हो गए वो तंग
बोले,"इस ईडियट-बोक्स ने
अक्ल कर दी है तुम्हारी मन्द
करो काम कायदे का
और टी.वी रखो बन्द"

टी.वी किया बन्द
सोचा रिसर्च करें जारी
पर गृहस्थि की गर्त में थी
खो गई पिछली पढ़ाई सारी
पढ़ना हुया गुल तो
आई लिखने की बारी
कुछ ही दिनों में हमने
कई पैन्सिलें घिस मारी
मन लगा कर सुने जो
अब कविताएं सारी
मिलेगा ऐसा कौन
थी कठिनाई भारी
अन्त में बेचारे
पतिदेव ही फंसे
सुनकर हमारी रचना
बड़ी ज़ोर से हंसे

हंसी की उस कटार से
कुछ ऐसे कट गए
साहित्य के रण-क्षेत्र में
अब जम के डट गए
तपस्या हमारी देखकर
भगवन् को तरस आया
देवदूत भेज कर
रस्ता नया सुझाया
अन्जाने उस संसार में
जो बढ़ने लगे कदम
घड़ी की ओर ताकना भी
अक्सर भूले हम
नई सोच नए दृष्टिकोण
हमें सूझने लगे
समय की लहरों से
हंसकर हम जूझने लगे ।।

सौ बातों की एक बात, बाला जी की कृपा से एक नई शुरूवात हुई,
आप लोगों से मुलाकात हुई,मुफ्त में इतनी बात हुई,इसलिए हम तो हाथ जोड़ेगें
और बुलन्द आवाज़ में कहेंगे ---बाला जी की जय !!!!

Thursday, June 22, 2006

नवनिर्मित पहचान

नई सदी में नव-निर्मित हुई
नारी की पहचान
संस्कारों के बंधन पर क्यों
लगते उसको अपमान

सहनशीलता लाज और ममता
त्याग,प्रेम गुण दिए बिसार
उसकी सोच की धुरी बनी क्यों
मैं और मेरे की तकरार

पिछली पीढ़ी की पीड़ा का
क्यों मांगे पुरषों से मोल
क्षमा बड़न् का शस्त्र है
भूल गई यह सीख अनमोल

आदम के हर गुण-अवगुण पर
उसने अधिकार जताया है
सब कुछ पा लेने की चाह में
अपना अस्तित्व गंवाया है

नारी के बिन नर है अधूरा
बिन नर नारी अपूर्ण
दोनों के सहयोग से बनती
ये सृष्टि सम्पूर्ण ।


Wednesday, May 17, 2006

अनुगूँज १९-संसकृतियां दो, आदमी एक


Akshargram Anugunj




संसकृतियां दो ,आदमी एक-जैसे ही पढ़ा तो शोले के गब्बर सिहं का चर्चित जुमला,
"आदमी तीन और गोलियां छ:,बोहूत बेइन्साफी है" दिमाग में कौंध गया । दिमाग को
झटक कर जब अभिनव जी के विचार पढ़े तो हम भी गब्बरमय हो गए और बोल उठे
--"संसकृतियां दो और आदमी एक-बहुत नाइन्साफी है ।" पर साहब,ध्यान से देखिए,
यह ज़िन्दगी भी तो एक नाइन्साफी है । अच्छे खासे एडम बाबा ईव बा के साथ मस्ती
काट रहे थे पर जाने क्या सूझी सेब तोड़ खा लिया औऱ फोकट में आने वाली नस्लों
को धरती पर तमाम नाइन्साफिय़ों के बीच पिसने को ठेल दिया ।अब जब हम सब इस
जिन्दगी को झेल रहे है तो दो संसकृतियों की क्या बिसात है, हँसकर ,रोकर, कुछ
लेकर,कुछ देकर निपटारा कर ही देंगे । बस जरा यह पता चल जाए कि संसकृति है
किस चिड़िया का नाम । शब्दकोश उठा कर देखा तो पाया संसकृति "आचरणगत परम्परा"
को कहते है,यानि वह आचरण जो परम्परा से मिला है या वो सोच जो जीवन मुल्य बन
परम्परा के रूप में हमारे पास आई है। दूसरे शब्दों में संसकृति पीड़ीयों से चली आ रही
सोच या आचरण का वह पुलिन्दा है जिसका भारी भरकम बोझ हमारे कन्धों पर पैदा होते
ही रख दिया जाता है तथा जिसे ढो कर हमें अगली पीड़ी तक ले जाना है।
किसी भी सभ्यता कौम या जाति का आचरण उसके पनपने के स्थान
की भुगोलिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों पर बेहद निर्भर करता है।
एक इन्सान परिस्थितियों के अनुसार ही ढलता है और उसका वही आचरण धीरे
धीरे परम्परा बन संसकृति का रूप धर लेता है । अर्थात वर्तमान आचरण भविष्य़
में संसकृति कहलाएगा और क्योंकि प्रत्येक स्थान के वासियों का आचरण भिन्न है
अत: यह धरती दो नहीं अपितु अनेक संसकृतियों की हांडी है । मैं तो यहाँ तक
मानती हूँ कि एक परिवार,जो संसकृति के विराट स्वरूप की सबसे छोटीईकाई है,
की अपनी एक विशेष संसकृति है जो भिन्न होते हुए भी मूल रूप से मुख्य संसकृति
से जुड़ी हुई है । हर संसकृति अपने भीतर अच्छाईयों और बुराीईयों को समेटे सम्पूर्ण
है,जरूरत केवल उसकी अच्छाीईयों को अपना कर, बुराईयों को नज़र-अन्दाज कर उसके
मूल रूप को समझने और जानने भर की है । यहाँ पर बात क्योंकि केवल दो संसकृतियों
की है और अभिनव जी का इशारा पूर्वी और पश्चिमी संसकृति की ओर है तो हम अब
इसी विषय पर आते है । एक ओर तो वे प्रवासी भारतीए या एशियाई है जो पश्चिमी
संसकृति के बीच रहकर अपनी धरोधर को सुरक्षित रखने का यत्न कर रहे है और दूसरी
तरफ़ वे अप्रवासी जो अपनी संसकृति के दुर्ग में रह कर भी संसारीकरण के कारण उनके
घरों में घुसी चली आ रही पश्चिमी आँधी से परेशान है । जहाँ तक प्रवासी जन का सवाल
है तो मैं अभिनव जी के इस कथन से सहमत नहीं हूँ कि वे अपनी संसकृति से जुड़े है,
बल्कि मेरे विचार से क्योकि वे अपनी संसकृति की मुख्य धारा से कटे हुए है, इसीलिए
अपने साथ ले गये संसकारों को संजो कर रखना चाहते है,अपने देश से दूर रहकर उनके
लिए अपनी संसकृति का महत्व बड़ गया है तभी वे उसका बीज अपनी सन्तानों में रोपित
कर विदेशी धरती पर अपनी संसकृति का पौधा लगा रहे है,पर क्योंकि धरती और वातावरण
भिन्न है अत: वास्तव में वे एक नई ससंकृति को जन्म दे रहेे है जििसका सम्बन्ध केवल
मानवता से है और जिसका मूलभूत सिंद्दान्त केवल व्यक्तिगत आचरण है अर्थात एक व्यक्ति
का संसकारी होना अधिक महत्व रखता है फिर चाहे वह किसी भी संसकृति का क्यों न हो ।
यही नहीं प्रवासी भारतीए पश्चिमी सभ्यता के लिए पूर्वी संसकृति के प्रतीक चिन्ह बन पश्चिमी
जगत को अपनी ओर आकर्षित कर रहे है। हिन्दी भाषा की ओर रूची,हमारे रीति-रिवाजों अनुसार
विवाह की चाह, हमारे प्रचीन ग्रन्थों पर शोध, धार्मिक अनुष्ठानों में हिस्सेदारी,वेषभूषा और
खानपान के प्रति उत्सुकता ये सब उस नई संसकृति की नीवं को पुख्ता कर रहे है ।
विदेश भ्रमण से वापिस लौटते समय मेरी मुलाकात एक ऐसे अमरीकी परिवार से हुई
जो भारत में पिछले कई वर्षों से केवल इसलिए रह रहा है, क्योंकि वह अपने बच्चों में
भारतीए संसकार देखना चाहता है। नज़र घुमा कर देखें तो ऐसी कई नारियां पाएंगेै
जो पश्चिम में पलने बड़ने के बाद भी भारतीए नागरिकों से विवाह कर पूर्णतया हमारी
संसकृति में रंग गई है। कल ही का समाचार है कि एक विदेशी महिला ने जगन्नाथ मन्दिर
-पुरी के रख-रखाव के लिए १.७८ करोड़ का दान दिया है ।अर्थात पश्चिम ही नहीं पूरब
भी पश्चिम पर छा रहा है ।
अब बारी आती है अप्रवासीयों की दुविधा की । इतिहास के पन्ने
पलट कर देखें तो जब भारत में अंग्रेज़ी पढ़ाने का चलन हुया था तो कितना हो-हल्ला मचाा
था पर आज इसी भाषा को अपनाने की उदारता के चलते हम संसार में अपनी पैठ बना
पाए है । शिक्षा का प्रसार,सामान अधिकार,अधिकार के प्रति सजगता,नारी उत्थान ये सब
पश्चिम की ही देन है । यह सही है कि बेशर्मीी की हद तक खुलापन हमारी नींदें उड़ा रहा
है पर नई पीड़ी इस खुलेपन के बीच पल बढ़ रही है,अत: यह उनकी दिनचर्या का हिस्सा
बन गया है। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्रेम-विवाह ,लड़के-लड़कियों का खुले-आम बेहिचक
मिलना, हमारे लिए आम है,जबकि बीती पीड़ी के लिए यह सब नागवार था । हर पीड़ी
को सही और गलत में फरक करने की अक्ल विरासत में मिलती है वो खुद ही अपनी
राह खोज लेती है। हमें तो केवल उसे सही -गलत का नाप तोल सिखाना है।
संक्षेप में पूरब और पश्चिम अपनी सीमाएं तज एक दूसरे की
ओर निकल पड़े है,एक आगे बड़ रहा है दूजा चरम सीमा पर पहुँच लौट रहा है,--
" कुछ हम बदल रहे है, कुछ वो बदल रहे है, खुशी तो है इस बात की, किसी
मुकाम पर मिल रहे
है ।" पर जब तक दोनों उस मुकाम तक नहीं पहुँचते तब तक
हम क्या करें,हम तो दोनों धारायों में गोते खाते तिनके का सहारा ढूँढ रहे है। पर
ध्यान से देखिए दोनों संसकृतियों के मूल सिद्धान्तों से बना जहाज़ हमारे सामने
खड़ा है, अब उस परसवार होना है तो अपने संसकारों के पुलिन्दे का अनावश्यक
बोझ तो कम करना ही पड़ेगा । घबराइए मत, जिस प्रकार हम अपनी पुराने संसकारों
की नौका में ज़रूरत भर के बदलाव कर यहाँ तक लाए है, नई पीड़ी भी संभल कर
अक्लमंदी से इस जहाज़ को एक ऐसी बन्दरगाह पर ला खड़ा करेगी,जहाँ होगी---
एक संसकृति,एक आदमी । दूध का दूध, पानी का पानी । कोई बेइन्साफी नही ।
पर होगीं नई परेशानियां ,कठिन चुनौतियां ,वे भी हमारी तरह ही बड़बड़ाएगें । क्योंकि
उन्हें भी तो आखिर उस खाए सेब की कीमत चुकानी है । .

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Monday, May 15, 2006

भारत चमक रहा है

चुनाव की थी तैयारी
विचार विमर्श हुया जारी
समस्या थी विकट
किस को दें टिकट
जो दल की स्थिती सुधारे
और नैया पार उतारे

आडवानी ने धीरे से
चाँद अपनी सहलाई
गोया दु:खती रग दिखलाई
बोले---
इन्द्रा जी की बड़ी बहू ने
किया नाक में दम
इस विदेशी ताकत से
अब कैसे निपटें हम
तिस पर वोटर चाहते है
कि तारे तोड़ कर लाओ
वरना सीधे-सीधे बच्चू
गद्दी छोड़ कर जाओ ।

यह सुनते ही अटल जी
कवि चिंतन से जागे
सरके थोड़े आगे
अनमोल वचन ये दागे
"हम श्री राम के है भक्त
भए उनकी कृपा सशक्त
सो अपना वचन निभाएंगे
तारे ला दिखलाएंगे
जब इतने सिने सितारे है
टी.वी. पर ढेरों तारे है
अपने तो वारे न्यारे है
फिर क्यों थक कर सब हारे है।

देख अटल के अटल इरादे
सब को हिम्मत आई
और चाँदनी-चौंक की टिकट
श्रद्धा से तुलसी की भेंट चढ़ाई
सोचा--
बहू है देश के टी.वी. की
नहीं अमेठी, राएबरेली की
परिवार की लाज बचाएगी
सोनिया को सबक सिखाएगी
स्वपन-सुन्दरी को फिर सबने
राज कमल भिजवाया
हेमा के संग फ्री में उन्होंने
धर्म-सम्राज्य भी पाया

सोनिया जी यह चाल देखकर
मन ही मन झुंझलाई
उनके पति की चाल गई थी
उन पर ही आज़माई
शुरू हुई फिर अभिनेता को
नेता करने की होड़
हर इक टोपी लेकर दौड़ा
बौलीवुड की ओर
प्रोडूयसर को धता बता कर
बुक की सब तारीखें
किसी को दुगनी कीमत दे दी
और किसी को टिकटें

फेंक मुखौटा अभिनेता भी
खालिस नेता बन बैठे
करेला कदाचित् नीम चढ़े तो
क्यों न कुछ कुछ ऐंठे
आखिर उनकी चमक से ही तो
भारत चमक रहा है
ना जाने क्यों चिरकुट वोटर
फिर भी सिसक रहा है ।।

Saturday, May 13, 2006

माँ का पैैगाम ,बेटे के नाम

मातृ दिवस के उपलक्ष्य में माँ के गौरव में अनेक शब्द कहे गए।उसे नमन किया गया, सलाम भेजा गया और ईश्वर का फरिश्ता माना गया , पर एक माँ का अपने बेटे की जुदाई में क्या हाल होता है,उसका दिल कैसे रोता है ,यह चित्रण मैने निम्न पंक्तियों में करने का यत्न किया है-----

एक स्वपन आँख में आया था
मैने कोख में उसे छुपाया था
पर कुछ दिन भी न छिप पाया
झट गोद में आकर मुस्काया
हंसी खेल में गोद से भी खिसका
मेरा आँचल थाम ज़रा ठिठका
फिर आँचल तक सिर से फिसला
जब घर से बाहर वो निकला

थी चाह कि वो उड़ना सीखे
जब उड़ा तो क्यों नैना भीगे
उसके जाने पर घर मेरा
क्यों लगता भुतहा सा डेरा
घर में बिखरी उसकी चीज़ें
पैन्ट पुराने कसी कमीज़े
टूटे खिलौने बदरंग ताश
बने धरोहर मेरे पास

मुस्काती उसकी तस्वीरें
जब तब मुझे रूलाती है
उसकी यादें आँसू बन कर
मेरे आँचल में छुप जाती है
फोन की घन्टी बन किलकारी
मन में हूक उठाती है
पल दो पल उससे बातें कर
ममता राहत पाती है

केक चाकलेट देख कर पर
पानी आँखों में आता है
जाने क्योंकर मन भाता
पकवान न अब पक पाता है
भरा भगौना दूध का दिन भर
ज्यों का त्यों रह जाता है
दिनचर्या का खालीपन
हर पल मुझे सताता है

कब आएगा मुन्ना मेरा ?
कब चहकेगा आँगन ?
कब नज़रो की चमक बढ़ेगी ?
दूर होगा धुँधलापन ????

Thursday, May 11, 2006

नारी के मनोभाव

कहने को यह घर है मेरा, अपना कोना कोई नहीं
सेज सजी है फूलों से पर, नरम बिछौना कोई नहीं

दिल में दर्द छुपा है बेहद, आँखें खुल कर रोई नहीं
जाने क्यों मुझे पड़ी काटनी, वो फ़सलें जो बोई नहीं

जिनके तन का टुकड़ा थी,मैं उनके लिए पराई थी
श्वसुर गृह के लिए सदा ही,दूजे घर की जाई थी

बरसों तक इक नाम को लेकर, मैंने पहचान बनाई थी
वो पहचान क्यों सप्तपदी की सीमा लांघ न पाई थी

प्रकृति ने मुझको सोंपा था, वंश वृद्धि का अदभुत काम
किन्तु जुड़ा न वंशावली संग, उसकी जन्मदाती का नाम

आश्रय दान के बदले में मुझसे छिन गए अधिकार तमाम
अपनी सींचित सन्तानों को , दे न पाई मैं अपना नाम

देवी का दर्जा तो मिला, पर देवी का सम्मान नहीं
शायद नारी में अपना किंचित सा भी स्वाभिमान नहीं

उद्वेलित मन के लावे में क्यों आता उबाल नहीं
धैर्यधारिणी के भीतर कहीं छुपा तो कोई भूचाल नहीं ।।

Sunday, May 07, 2006

मसाले वाली चाय

कई दिनों से रत्ना की रसोई में health food पक रहा है, यानि नपा-तुला और शक्तिदायक तत्वों से भरा हुया । बेचारे मेहमान तो तरीफ़ कर खा रहे है पर पकाने वाली ज़रा बोर हो गई और सोचा कि क्यों न कुछ चटपटा व्यंजन पकाया जाए। खूब कैलोरी/शब्दों से भरपूर । अब हमारे पकवानों को परोसने के लिए डिनर-सेट (computer set) और उसकी प्रयोग विधि क्योंकि पति-देव की देन है सो इस बार उनकी पसंद पर कुछ पक रहा है , वैसे मसालेदार चाय और गर्मा-गर्म पकौड़े तो सभी को अच्छे लगते है ,फिर देर किस बात की ,बस आप भी लुत्फ़ उठाइए ।


परसों सुबह ज्यों ही आँखें हमने खोली
फोकस में थी आई पति की सूरत भोली
खिड़की से दिखता आकाश,नयन रहे थे नाप
अजीब से तेवर लिए, बैठे थे चुपचाप
अख़बार और चाय बिना चेहरा था मुरझाया
हालत उनकी देखकर हमें उन पर तरस आया
पूछा हमने प्यार से,"क्यों जी ,चाय पीएंगे?"
बोले,"बिना तुम्हारे हम किस तरह जीएंगे"

यह सुनते ही हमें हुया खुद पर कुछ अभिमान
अपनी धुन में करने लगे हम अपना गुणगान्
"जानते है जानम्,प्यार हमें हो करते
हमसे बिुछड़ने का सोच कर हर दम रहे हो डरते
तभी तो हमारी मौत का देखा है बुरा सपना
न गमगीन हो ,न दुखी हो, न जी जलाओ अपना
सपने भी साहब कभी होते है सच्चे
सपने देखकर तो घबराते है बच्चे
कसम तुम्हें हमारी हमसे न छुपाओ
क्या सोच रहे हो ज़रा हमें भी बताओ"

देखा दाएं बाएं थोड़ा हिचकिचाए
मूँछो में मुस्काते बोल ये फरमाए-
"कसम दी है तुमने तो सच कह रहे है
वरना गुलाम बन हम सालों से रह रहे है
तुम्हारे जाने का होगा यकीनन् बहुत ही गम
पर वो रोने धोने से हो पाएगा न कम
हमारी तड़प देखकर तड़पेगी रूह तुम्हारी
तुम्हें कष्ट दें यह फितरत नहीं हमारी
यही सोच जानम् खुशी से हम जीएंगे
जाम ज़िन्दगी का लुत्फ़ ले पीएंगे
अपने घर में लेंगे खुल कर हम अंगड़ाई
आखिर उमर कैद से छुट्टी है हमने पाई
सुबह-सुबह पार्क में करेंगे रोज़ कसरत
हसीनों को वहाँ देखने की पूरी होगी हसरत
कुछ भी हम करेंगे न कोई देगा ताने
पेपर पलंग पर पटक कर घुस जाएंगे नहाने
दोस्तों संग घर पर अपने शामें हम बिताएंगे
बारी-बारी उनके घर पर दावतें उड़ाएंगे
अपना कमाया पैसा करेंगे खुद पर खर्च
ख़ुदा न करे हो गया जो हमें कोई मर्ज़
तो झट से हो जाएंगे हम हस्पताल भर्ती
भली लगेंगी नर्सें हरदम सेवा करती
मिलेगी भाभियों से हरदम सहानुभूति
उस आनन्दमयी समय की क्या सुखद है अनुभूति
ऊपर तुम रहोगी देवी- देवता के साथ
नीचे हम थामेंगे किसी अप्सरा का हाथ"

उनके ख़्याली द़ेग में
पुलाव पक रहा था
जलन की ज्वाला से
हमारा दिल दहक रहा था
खांसे हम खांसी झूठी
तो तन्द्रा उनकी टूटी
हकीकत में वापिस आए
घबरा कर बड़बड़ाए-
"चलो,हटो,छोड़ो,
यूँही वक्त ना गवांओ
जाकर ज़रा गर्मा-गर्म
चाय तो ले आओ
सच कहती हो सपने
कभी होते नहीं सच्चे
सपने देखकर तो
खुश होते है बच्चे"

पाँव पटक कर हमने
ऐसी चाय थी पिलाई
आज़ तलक तक जिनाब़ को
नींद ही न आई ।।।

Friday, May 05, 2006

विश्वास

विश्वास जो बिखरा तो उभरी शिकायत
शिकायत ने चुप्पी की चादर ली ओढ़
गुप चुप सा फैला गलतफहमी का कोढ़
चाहत के चेहरे पर बदली लिखावट
रिश्ते की राहों में आया एक मोड़ ।।


Thursday, May 04, 2006

विवाह-विज्ञापन

चाहत है हमें एक ऐसी वधू की
हो जो सरल ,सुशिक्षित और सुन्दरी
पाश्चात्य संस्कृति से सर्वथा अन्जान हो
किन्तु रखती अंग्रेज़ी का अदभुत वो ज्ञान हो
संस्कारो में पली हो,
दूध से धुली हो,
गृह कार्यों में दक्ष हो
सर्वो सेवा उसका लक्ष्य हो
रखे पति गृह को सदा वो सहेज के
लोभी नहीं हम अच्छे दहेज़ के
दहेज तो दिखाता है रिश्तों का प्यार
इन्कार क्यों करे हम जो दें वो अपार

तलाश है उन्हें भी एक ऐसे सुयोग्य वर की
जिस पर कोई जिम्मेवारी ,न हो उसके घर की
नाज़ों पली कन्या के नखरे उठाए
छुट्टी के दिन उसे मायके ले आए
दिखने में वो हो सुन्दर सजीला
परिवार से दूर रहता हो अकेला
लाखों कमाने में वो दक्ष हो
विदेश में बसना उसका लक्ष्य हो
माता पिता उसके धनवान हो
समाज में उनका सम्मान हो
शादी का खर्चा वो मिल कर उठाएं
बुरा कुछ लगे तो बस चुप लगाएं

इधर वर पक्ष की अनेकों अपेक्षाएं
उधर वधू पक्ष की अंसख्य इच्छाएं

था जो पहले दो परिवारों
दो आत्माओं का मेल
बना वो विवाह बन्धन
आज रस्साकशी का खेल
दोनों पक्ष एक दूसरे को
नीचा दिखाने पर तुले है
इस खींच तान में, न जाने
कितने बन्धन खुले है
तभी शायद कुछ युवा
इस बन्धन से आज़ाद है
रखते अपनी गृहस्थी को
बिना विवाह आबाद है

समाज नई सदी में,
माना, प्रवेश कर रहा है
पर कर्णधार भविष्य का
न जाने कहाँ और कैसे पल रहा है ।।


आभार

पिछले कुछ वर्षों में हैरी पोटर्र की धूम और दुकानों में हिन्दी की पुस्तकों पर जमती धूल मेरे मन पर विषाद की परत बन कर छा रही थी । बार-बार यह अफ़सोस होतो था कि ---

सोच कर विचार कर
अनुभवों के आधार पर
कवि ने एक रचना रची
सोचा, लोग पढ़ेगे
विवेचना करेगें
धार पर धरेगें
कुछ खामियां बताएगें
थोड़ा बहुत सराहेगें
धीमे से गुनगुनाएगें
परन्तु--
न सुनाई गई, न किसी ने पढ़ी
न अपनाई गई, न सूली चढ़ी
वो शब्दों विचारों की सुन्दर लड़ी
रही चन्द बन्द पन्नों में जड़ी ।।

तभी जाने कहाँ से चमत्कार हुया, नारद जी का अवतार हुया और जो उन्होंने हिन्दी जगत् का विराट स्वरूप दिखाया तो आँखें खुली की खुली रह गई । कड़छी /कलम थामने की आदी ,गठिया ग्रस्त उंगलियों को की-बोर्ड पर कसरत करने का भूत सवार हो गया और मैं Wonderland की Alice बनी एक ब्लाग से दूसरे ब्लाग पर भटक कर आनन्दित होती रही । बस फ़रक केवल यह था कि मेरे साथ ख़रगोश की जगह चूहा (mouse) था । भाव विभोर होकर मैं उन लोगों के प्रति नतमस्तक हो गई जो देश से हज़ारों मील दूर रह कर भी हिन्दी से जुड़े है और ऐसे लोगों के लिए प्रेरणा स्तंभ है जो अंग्रेज़ी को ऊंचा स्तर दिखाने की पहली सीड़ी मानते है। मुझे अंग्रेज़ी से कोई शिकवा या शिकायत नहीं है, यह तो भाषा है,विचारों का आदान-प्रदान करने का एक साधन मात्र । कष्ट तो वो देसी अंग्रेज़ देते है,जो 'अपनों को छोड़ो,गैरों से नाता जोड़ो ' की मानसिकता रखते है क्योंकि शायद यही मानसिकता अपनों से अपनों को दूर करती है,भाई से भाई पर गोली चलवाती है और देश, समाज,परिवार व स्वंयम् इन्सान के पतन का कारण बनती है।।

Tuesday, May 02, 2006

उधार नहीं

युगल जी की प्रशंसा और प्रश्न के जवाब में कुछ पंक्तियां हाजिर है -----

भारत आज़ादी पाएगा,जन जन समृद्ध हो जाएगा
देखे जो सपने बुज़र्गों ने ,वो हुए कभी साकार नहीं

आज सजी दुकानें समानों से पर आँख अटी अरमानों से
छपते है नोट हज़ारों के जन जेब में पर खनकार नहीं

हैं बिजली के उपकरण बहुल पर बिजली रहती अक्सर गुल
कारें तो दिखें कतारों में,सड़कों का स्थिती सुधार नहीं

कट रहे हैं जंगल हरे भरे,धरती पर रेत के ढेर बढ़े
कूड़ा करकट दर दर फैला शूद्ध हवा भी अब दरकार नहीं

फुव्वारे नीर बहाते हैं और दरिया रीते जाते है
बिन पानी श्वास लता सूखे नल में जल की पर धार नहीं

अनाज गोदामों में सड़ता और भूख से रोज़ कोई मरता
शासन को तो बहुतेरे हैं कोई काम का पर हकदार नहीं

रिश्वत का हुया बाज़ार गर्म, बन गया है भ्रष्टाचार धर्म
बंटे भारतवासी टुकड़ों में ,सरकार को पर सरोकार नहीं

बम और बन्दूक खुले बिकते, हंसते इन्सां पल में मिटते
लुटती अस्मत बाज़ारों में, जीवित मानव संस्कार नहीं

अब मंगल ग्रह पर जाएगें और चाँद पर बस्ती बसाएगें
इस धरती पर तो जीने के दिखते अच्छे आसार नहीं

क्योंकर पर पीठ दिखाएगें स्वराज सुराज्य बनाएगें
बेबस होकर और घुट घुट कर जीने को हम तैयार नहीं
ये देश हमारा अपना है कोई मांगा हुया उधार नहीं ।।

जी हाँ , ये देश हमारा है , इसे हमें ही बनाना हैै । नरसंहार में मरते नर नहीं बल्कि मानवता मरती है और मानवता को जीवित रखना मानव धर्म है ।

Monday, May 01, 2006

ना हिन्दू ना मुसलमान

अल्लाह से न तो भगवान लड़ रहा है
मुहम्मद से न ही राम लड़ रहा है
ये तो है अहम् से अहम् की लड़ाई
अच्छे भले इन्सान की जिसने दुर्गत बनाई
तिस पर तुर्रा इसे कहें ईश्वर की इच्छा
हमारा नहीं ये तो मौला का हिस्सा
होश नहीं खुद का करें बातें खुदाई
लगता है शर्म, हया दोनों ने बेच खाई

ऐ मालिक, देख तेरे बन्दे क्या कर रहे हैै
अपनी खुदगर्ज़ी तेरे माथेै मढ़ रहे है
कसूर इनका तूने हमेशा भुलाया
यकीनन इसी बात का है फायदा उठाया
दुनिया में ले आ तू फिर से कयामत
कोई भी दोषी रहे ना सलामत
कयामत के बाद केवल इन्सां बचें
न कोई हिन्दू, न कोई मुसलमान दिखे ।।

Sunday, April 30, 2006

सूखा


सूखी है नदिया
खाली गगरिया
पनघट हुए विरान
नदी किनारे
गांव है सूना
बँजर भए खलिहान

जाने कब थी
बिजली चमकी
कब बादल थे गरजे
कब सौंधी सी
महक उठी थी
कब जलधर थे बरसे

आग उगलते
सूरज ने
लाखों का जीवन फूंका
आँखों में
लहराया सावन
पर धरती पर सूखा ।।

कविता

मन का सागर बेहद गहरा
उसकी निधी पर अधरों का पहरा
दर्द का ताप जब भाप बनाता
भाव उमड़ कविता बन जाता ।।