Saturday, July 29, 2006

सफ़र के साथियो को सलाम

आज शनिवार है और कल इतवार,अर्थात आज आधे दिन का आराम व कल पूर्ण विश्राम। सो सोचते है कि आगे का सफरनामा (ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस तक-भाग तीन ) तो हम सोमवार को सुनाएं, परन्तु अपने साथ सफ़र में सवार और हमारी पीड़ा में भागीदार श्रद्धालू-जन की शंकाओं का समाधान, टिप्पणियों की व्याख्या और प्रशंसा का अमृत पिलाने वालों का धन्यवाद आज ही करदें ताकि वे भी शांत एवं प्रसन्न मन से छुट्टी का आनन्द उठाएं और हम भी यह ढेड़ दिन पूर्ण रूप से अपने पतिदेव की सेवा में बिताएं, देव कृपा का थोड़ा मोल चुकाएं और अपना अगला जन्म सधाएं। वैसे हमारी हार्दिक इच्छा थी कि प्रत्येक साथी जन का जिक्र करते समय उसका नाम कुछ ऐसे लिखें कि करसर का स्पर्श पाते ही वह नाम प्रकाशमय हो जाए और बटन दबाते ही जिज्ञासु सीधा उस महान आत्मा के दर्शन का लाभ पा लें पर क्योंकि पिछले ढाई मास के कड़े परिश्रम के बाद भी हम यह कला नहीं सीख पाएं है सो अपने अल्प ज्ञान के लिए क्षमा प्रार्थी है।
सबसे पहले अनूप जी से शुरूवात करते है। भाई जी, गद्य की अपेक्षा हम पद्य गाना इस कारण पसन्द करते है क्योंकि पद्य लिखने केलिए कम टाइप करना पड़ता है। हमारे पास टाइप करने हेतु केवल तर्जनी ही है अत: उस पर काम का अधिक बोझ नहीं डालना नहीं चाहते।अगर रुष्ट होकर अकड़ गई तो हमारी सारी व्यवस्था ही डोल जाएगी। अन्य उगंलियों को नोटिस भेजा है जैसे ही काम पर आ जाएंगी आपका अनुकरण करते हुए गद्य में पद्य पिरो कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर देगें। दूसरा-- भेजा-बाज़ार में जब ताज़ी मौसमी तरकारी उपलब्ध नहीं होती तो हम डायरी के कोल्ड-स्टोरेज़ से कविता निकाल कर परोस देते है ताकि रसोई का चुल्हा बुझने न पाए। तीसरा- हम नारी स्वभाव से पीड़ित है। दिमाग से अधिक दिल को प्राथमिकता देते है और यह सत्य तो आप स्वीकारेंगे कि गद्य दिमाग की और पद्य दिल की उपज है। ज़रा सुनिए यह सप्तम स्वर कहाँ गूंज रहा है--


जब से हमने ब्लाग बनाया
और की शुभ शुरूवात
छाया जी आप संग चले हैं
दर पोस्ट हमारे साथ
आपको कैसे नमन करें हम
कैसे आभार जताएं
गुड़ खाकर हम भए है गूंगे
अब कैसे स्वाद बताएं ।।


नारद मुनि को हमारा सादर प्रणाम। जीतु भाई, आपने दर्शन बीस तारिख को दिए थे जबकि हमने कथा केवल उन्नीस तक की सुनाई है। अधिक अधीर न हों, बीस तारिख की गाथा (सोमवार को होने वाली ) में हम आपका उचित सत्कार करेंगे। दूसरा- सफरनामे का आरम्भ ब्लागस्पाट कस्बे से किया है पर अन्त वर्डप्रेस नगरी में होगा। तीसरा- नारद जैसे ज्ञानी अगर कन्फ्यूज़ हो सकते है तो हम जैसे तुच्छ जीवों की क्या बिसात। इस विचार ने घावों पर मरहम का काम किया है। चौथा- दोनों रसोइयों का विलय कर नया नाम " रत्ना रेस्ट्रोरेन्ट " करने का विचार है। ढाबे पर आकर बैठना लोगों को कम पसंद आ रहा है। अत: नामकरण संस्कार की क्या विधी है, कृपया मार्ग दर्शन करें।
मानोशी दीदी, प्रेमलता जीजी और प्रत्यक्षा जी आदर सहित स्नेह युक्त नमस्कार। सफर में महिला साथी न हो तो बातचीत का मज़ा ही नहीं आता। वे ही तो कभी मनोशी दीदी की तरह पीठ ठोंकती है,कभी लता जीजी समान मिश्री के शब्दों का शरबत पिलाती है और कभी प्रत्यक्षा जी की तरह आगे बात चलाने केलिए जिज्ञासा दिखाती है।साथ न छोड़िएगा आपके रहने से हमें काफी सहारा है।
आशीश भाई अब आप एक राज़ की बात गुपचुप कान करीब लाकर सुनिए। ऐवें शब्द हम पंजाबी इलाके से स्मगल करके लाए है। किसी से कहना मत। कभी कभार आप भी इस्तमाल कर लेना कोई घिस थोड़े ही जाएगा । इसी लेन देन पर तो दुनिया कायम है।
इस कान में फूंकें मंतर के संग ही आज की सभा समाप्त होती है।सोमवार को आपको बोर करने फिर हाज़िर होगें। तब तक हमारे लिए दुआ किजीए। मनीष भाीई आपकी दुआ के चलते ही वर्डप्रेस तक पहुंच पाएंगे ।दिल खोल कर दीजिए क्योंकि--

तुम एक दुआ दोगे हम दस लाख देगें

Friday, July 28, 2006

ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस तक का सफ़र- भाग दो

द्वितीय चरण --------


सुबह आँख खुलते ही बिना दाँत चमकाए, बिना चेहरा छपाकाए, बिना बेड-टी सुड़काए, बिना पतिदेव को प्रेम से जगाए और बिना महादेव को शीश नवाए, हम बिस्तर से सीधे अपने ढाबे पर गिफ्टस ( टिप्पणियों ) का जायज़ा लेने जा पहुँचे । वहाँ जो नज़ारा देखा तो नींद से बोझिल आँखों को दो चार बार मला कि कहीं खड़े खड़े सो गए हो तो इस बुरे सपने से जग जाएं, हाथ पर चिकोटी भी काटी ताकि प्रूफ मिल जाए कि जो दिखाई दे रहा है वो वास्तव में सच है और जब बारीक सा नील का निशान बेहद साफ दिखाई पड़ा तो दिमाग ने ओवर-टाइम कर झट यह नतीजा निकाला कि हम हिन्दी चिट्ठा जगत् से निष्कासित कर दिए गए है । तभी तो ग्रह-प्रवेश के दिन भी कोई पकवान खाने तो क्या पानी पीने तक नहीं आया । हैरान परेशान दिल परन्तु यह मानने को तैयार नहीं हुया । आखिर जब हमने किसी से पंगा नहीं लिया, जितनी गिफ्ट(टिप्पणियां) मिली उतनी कमोबेश तोल कर वापिस कर दी, अच्छे नागरिक की तरह नियम कानून का पालन किया, परिचर्चा कल्ब मे भी आते जाते रहे फिर क्यों कोई हमारा हुक्का पानी बंद कर देगा। ज़रूर भगवान जी नराज़ हो गए है तभी सत्यनारायण-व्रत कथा की वणिक कन्या के समान कुछ का कुछ दिखाई दे रहा है । नहा धो कर प्रसाद खा कर आएं तो सब ठीक हो जाएगा । भारी मन से अपना काम निपटाया , पतिदेव को नाश्ता करवाया, तदोपरांत महादेव को दूध से नहलाया और मन में नन्हीं सी आशा लिए अपने ढाबे पर आ गए । दृश्य अभी भी जस का तस था । दिमाग कुलबुलाया पर दिल ने दलील दी कि अभी अभी धमाका हुया है लोग इधर उधर अटके हुए है, आवा जाही रुकी हुई है सो हो सकता है कि कोई यहाँ तक नहीं पहँच पा रहा है तो चलो हालात का जायज़ा लेने अक्षरग्राम/नारद के स्टेशन पर चलते है । वहीं यह भी देख लेगें कि हमारे पकवान का स्टाल एक नम्बर प्लेटफार्म पर है या दो, तीन या चार पर पहुँच गया है।
नारद स्टेशन पर लोग परेशान थे, मदद की पुकार लग रही थी । फिर भी स्थिति नियन्त्रण में थी । हम पाँच नम्बर प्लेटफार्म तक घूम आए पर हमारा स्टाल कहीं दिखाई नहीं दिया तो माथा ठनका कि ज़रूर कोरियर सर्विस में गड़बड़ी हुई है जब Sample ही नहीं पहुँचा तो लोग माल को कैसे जांचेगें और कैसे आंकेगे । सो गड़बड़ी का पता लगाने के लिए हम सर्वज्ञ जी के पास जा पहुँचे। उनकी पहली गेंद " mySQL में डाटाबेस क्रियेट कीजिए " सिर के ऊपर से निकल गई और बाकी की सब गेंदे आजू-बाजू से और हमारा स्कोर आखरी गेंद तक ज़ीरो रहा । वर्डप्रेस की पारी खेलने केलिए उन्होंने जो जो कहा था वो हमने नहीं किया था। जब वर्डप्रेस स्थापित ही नहीं किया तो गाड़ी कैसे चलेगी ? यह सोच हम मेन पैविलियन में गए और MyComputer,Places,Desktop,यहाँ तक कि Trash भी खंगाल आए पर mySQL नहीं मिला। हार कर वर्डप्रेस की गलियों में उसे खोजने चले। वहाँ पर वर्डप्रेस सिखाने का एक स्कूल दिखा तो हम मेन गेट खोल अन्दर घुस लिए पर स्कूल इतना बड़ा था कि Getting Started With WordPress का दरवाज़ा खोल जो भीतर गए तो दरवाजा दर दरवाज़ा खुलता गया और हम चक्करघिन्नी बनें बाहर निकलने की तरकीब भूल गए। अन्तत: Log Out करके ही बाहर आना पड़ा । पर वहाँ घूमते-घुमाते एक दरवाज़े पर Audio-Video Lessons का बोर्ड दिखा था सो फिरentry ली और दर दर लुढ़कते -पुढ़कते उस दरवाजें में जा घुसे। वहाँ भी सर्वज्ञ जी वाला आलाप चल रहा था सो नाक तक पके हुए हम बाहर आ गए और ठुड्डी पर हाथ धरे, बुड्ढे तोते पढ़ नहीं सकते और भैंस को बीन के सुर नहीं पचते की सत्यता पर विचार कर ही रहे थे कि पतिदेव की कार का दरवाजा खुलने बंद होने की खटाक से हमारी तन्द्रा टूटी तो पाया कि पिछले आठ घन्टे से हम लगभग लगातार वर्डप्रेस की गलियों में खाक छान रहे थे । इससे पहले कि देवों की तरह पतिदेव भी क्रोधित हो जाएं और ब्लागस्पाट की तरह हमारी ब्लोगिंग पर भी प्रतिबन्ध लग जाए, हमने प्रिय कम्प्युटर जी से, पतिदेव के काम पर जाते ही ,कल फिर मिलने का वादा कर, भारी मन से विदा ली।

इति द्वितीय चरण समाप्त ।।

Thursday, July 27, 2006

ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस तक का सफ़र - भाग एक

बहुत सालों से उपहार में मिली डायरियों का सद्-उपयोग ( ??? ) हम मन की भड़ास निकालने केलिए करते थे पर जब पतिदेव के एक मित्र ने, जो कम्प्यूटर के महारथी और कई ब्लागों के स्वामी है हमें ब्लागिंग का गुरूमन्त्र दिया तो मानो बन्दर के हाथ झुनझुना लग गया। हम भूख-प्यास भूल ब्लागस्पाट की ट्रैक पर सरपट दौड़ पड़े, कीर्तिमान बनाया, वज़न भी घटा लिया क्योंकि कुछ तो ऊपरी माला का फालतू समान घट रहा था और कुछ की-बोर्ड पर ओवर-टाइम करते हाथ हर समय मुँह में छुट-पुट डालने में असमर्थ थे। यानि हर काम सुचारू रूप से चल रहा था और हम आम के मौसम में गुठलियों के दाम भी वसूल रहे थे कि एक धमाका हुया -- ब्लागस्पाट के इलाके में कर्फ़्यु लग गया और उस ओर जाने वाली सब गाड़ियां बंद । अक्षरग्राम/नारद के जंक्शन पर खड़े हम काफी देर वर्डप्रेस की ट्रैक पर दौड़ती गाड़ियों को टुकुर-टुकुर देखते रहे और फिर एक गाड़ी पकड़ उस पौश इलाके का जायज़ा लेने वर्डप्रेस के स्टेशन पर पहुँच गए । स्टेशन पर पैर धरते ही चट नाम पूछा गया और पट एक फ्लैट हमारे नाम कर दिया गया,वो भी फ्री में। हम खुश- वाह भई ! ऊँची दुकान, मालिक मेहरबान और फ्री का सामान। सच में उपभोक्ता का ज़माना है। काश हम उस समय अपने सितारे पढ़ पाते क्योंकि उस पल के साथ ही शुरू हुया हमारा एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे में गिरने निकलने का कष्टमयी सफर ।

प्रथम चरण------

फ्लेट मिलते ही हमें पता चला कि अन्दर तभी जा पाएंगे जब मेल बाक्स से कुंजी(password ) लेकर आएगें । खुशी-खुशी भागते हुए कुंजी लेकर वापिस पहुंचे पर बार बार लगाने पर भी ताला बंद और दरबान का सपाट सा जवाब " incorrect password ” । दो चार बार मेलबाक्स घूम आए पर मामला वही ढाक के तीन पात । बड़ी देर बाद समझ में आया जिसे हम " ओ ” पढ़ रहे थे वो वास्तव में जीरो था। राम-राम करते प्रवेश किया और तुरन्त ताला बदला ,एक बार चेक किया और जब बिना अड़चन ताला खुला तो हमने घर का जोगराफिया समझना शुरू किया ।
यहाँ कैटेगरी की क्यारी थी जिसमें हम अलग-अलग सब्जियां बो सकते थे । उनका import और Export भी कर सकते थे ।ब्लागस्पाट पर केवल पोस्ट लिखते थे यहां पेज भी लिख सकते थे । दोनों में फर्क क्या है पल्ले नहीं पड़ा पर सोचा चलो धीरे धीरे पता चल ही जाएगा। State of artका इलाका था सो भाषा भी हाई-फाई थी। एडिट को मैनेज़,Comment करने को Discussion करना और ब्लाग को Site कहा जाता था खैर Accent बदलने मे कितना वक्त लगता है ,साल भर अमरीका में रहकर आई बलिया की बिल्लो जब अमरीकन स्टाइल में अंग्रेज़ी बोल सकती है तो हम Edit को Manage क्यों नहीं कह सकते । अँग्रेज़ी मे M.A कोई ऐवें ही थोड़े किया है । बढ़िया इलाके में सब सुविधायों से युक्त घर मिला है अभी कुछ बदलाव करने की ज़रूरत नहीं है बस जल्दी से कुछ मीठा पका कर नारद जी को न्योता दे आएं ,यह सोच हमने अपनी शान में कुछ कसीदे लिखे (हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं------) ,सावन की डिश पकाई और नारद जी को नए घर का पता दे आए । बड़ी देर तक जब नारद जी के दर्शन नहीं हुए तो यह लगा कि एक तो हिन्दी जगत् का बोझ ऊपर से अभी- अभी भारत यात्रा से लौटे है । आजकल ग्रह-प्रवेश के न्योते भी ज्यादा ही मिल रहे है कहीं बिज़ी होंगें। देर सवेर हो ही जाती है आएंगें ज़रूर। आखिर हम उनके पुराने भक्त है। यह सोच कर इन्तज़ार करते करते रात के एक बजे आँख झपक गई और सपना देखा कि हमारे ढाबे पर लोगों की लम्बी लाइन लगी है। नारद जी सान्ताक्लाज़ की तरह गुपचुप ढाबे की चिमनी से प्रगट हो काली घनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए पकवान का आनन्द ले टिप्पणी के खाली मोज़े में बढ़िया सा गिफ्ट डाल कर जा रहे है ।

इति प्रथम चरण समाप्त

Friday, July 21, 2006

सावन की सौगात

चन्दा के उजले चेहरे पर
घोर घटा घिर आई
गोरी के गोरे गालों पर
काली लट लहराई
लम्पट लट की इस हरकत से
गोरी तनिक तमक गई
मेघों के छूने से नभ में
चंचल चपला चमक गई
बांवरी बदरी लगी डोलने
सखी वात के साथ
अमृत अपने अंग छुपाए
पहुँची गिरीवर के पास
मधुर मिलन का संदेशा
वर्षा धरती पर लाई
घबराती शरमाती गोरी
पिया के अंक समाई
पावन प्रेम की पावस पाकर
हरित हुई हर क्यारी
गोरी के भी आँगन की
महक उठी फुलवारी
सुदूर सृष्टि में सृजित हुया
स्नेह संगम संगीत
अवनि पर अंकुरित हुई
नई संतति की रीत ।।

Wednesday, July 19, 2006

ब्लागस्पाट पर बैन छीन ले गया चैन

सावन का पहला सोमवार था । हम सुबह-सुबह शंकर जी के ध्यान में व्यस्त थे,आखिर उन्हीं की कृपा से हमारी रसोई ने हज़ार का स्कोर पूरा कर, दो सैन्चुरियां बना तीसरी केलिए लार टपकाई थी। आगे भी दिन दूनी रात चौगनी प्रगति की कामना से हम भगवन् को उनकी पसंद का प्रसाद पहुंचाने और मक्खन लगाने में जुटे थे कि कोई नासपीटा,बुरी नज़र वाला,अक्ल का दुश्मन जलकुकड़ा हमारी रसोई पर, बिना कोई नोटिस दिए ,एक बड़ा सा ताला डाल गया । मन में तो आया कि करमजले को बेलन से बेल कर तन्दूर में उतार दें पर बेलन व तन्दूर रसोई में सील-बंद और दुखदाई,मासूमों की बलि चढ़ा, आतंक फैलाकर एक आतंकवादी की तरह फुर्र । इसलिए उस दिन की सारी तपस्या पर ध्यान केन्द्रित कर श्राप दे डाला " जा दुष्ट, तेरी अक्ल का ताला तेरे भाग्य पर जा लगे ताकि तुझे दूसरो के कष्ट का अन्दाज़ा हो । पद का मद तुझे ले डूबे ।"
उसे श्राप देकर,ठण्डा पानी पीकर जब कुछ शान्त हुए तो सोचा" उसका जो होगा, सो होगा पर तेरा क्या होगा रत्ना । तेरी तो रसोई बंद, अब पिछवाड़े के चोर-दरवाज़े से एन्टरी कर भी ले पर बिजनैस तौ गिऔ । ऊपर से यह डर कि पता नहीं कब सूंघता हुया आ धमके और घर से उद्योग चलाने के लिए चलान कर दे। बेहतर यही है कि जमीन खरीद एक रेस्ट्रोरेन्ट खोल दें पर जेब (अक्ल) टटोली तो पाया कि इतनी रेज़गारी (जानकारी) पास में नही है पर फिर भी कुल जमा-पूंजी जोड़ और कुछ इधर उधर से उधार लेकर अपना ढाबा वर्ड-प्रेस पर खोलने का मन बना लिया। एक बोर्ड "रत्ना का ढाबा" वहाँ लगा कर कुछ सामान भी रख आए पर ससुरा कोई दाँव- पेंच ऐसा फंसा कि ढाबा चल न पाया। सर्वज्ञ जी से कई बार सलाह-मशवरा किया पर मामला वहीं का वहीं । अब हार कर पिछवाड़े के दरवाज़े पर स्वागतम् लिख कुछ स्कीम चला रहें है।
सुस्वागतम्
(1)-----------आप आएं, दोस्तों को लाएं और नानवेज में मटनपुलाव, चिकन बिरयानी रौग़नजोश,शामीकबाब,फिश-फिंगर्रज वगैहरा व वेज में काश्मीरी दमआलू खोया मटर,शाही पनीर,
मलाई कोफ्ता आदि का लुत्फ उठाएं । अचार चटनी पापड़ और एक बड़िया बनारसी पान फ्री में।
(2) विशेष----- पहले सौ कदरदानों को उपहार में एक आशीर्वाद
(3) नोट------- अच्छा टिप देनें वालों केलिए भविष्य में लकी ड्रा से इनाम देने की योजना पर विचार किया जा रहा है।
*************** आज हम देवें उधार कल करगें व्यापार****************
ध्यान दें--- ढाबा चलवाने मे मदद की आवश्कता है

Saturday, July 15, 2006

बालक बूढ़ा एक समान

बालक बूढ़ा एक समान
सुन कर मैं रह गई हैरान

जीवन की यह उगती भोर
वह जीवन का अन्तिम छोर

झलके इसमें शैशव काया
उसमें बढ़ती उमर का साया

इसका हर पग है विजय-गाथा
वो डर से न कदम उठाता

इसकी आँखें स्वप्न सजाएं
टूटे सपने उसे रुलाएं

वृद्ध की चीख पीड़ा की आह
किलकारी में है उत्साह

नित नए नाते नन्हा जोड़े
वृद्ध हर रिश्ते से मुँह मोड़े

होता क्षण-क्षण यह स्वाधीन
पल पल वो बनता पराधीन

यहाँ दिखती जीवन की आशा
मृत्यु भय से वहाँ निराशा

यह है सुन्दर सुख की सूरत
दुख की वो है असली मूरत

कह मन कैसे लूँ मैं मान
बालक बूढ़ा एक समान

Thursday, July 13, 2006

आप जीएं हज़ारों साल,साल के----

यह दुआ, आशीर्वाद,इच्छा,मन्नत, चाहत और शुभकामना है ,आप सब ब्लागरज़ के लिए जिनकी बदौलत हमारी रसोई एक हज़ार व्यक्तियों के समक्ष भोजन परोसने का मील-पत्थर पार कर पाई। आप में से कुछ हमारे गरीबखाने पर बिना नागा आए, हर व्यंजन का प्रेम से स्वाद लिया और हर बार अच्छा सा टिप देकर गए, ऐसे सभी कदरदानों को हमारा, एयर-इन्डिया के महाराजा के अन्दाज में, झुककर धन्यवाद। कुछ अन्य मेहरबान है जो दस्तरखान पर आए तो रोज़ ,नज़ाकत से चखकर भी गए पर तारीफ में तकल्लुफ बरत गए और टिप केवल एक-आध बार ही टपकाया, उन्हें हम लखनवी नफासत से ज़हे-नसीब कहेंगें । और जहाँ तक उन साहिबान का सवाल है, जो कभी- कदार, भूले भटके आ पहुँचे और सूंघ कर आगे बड़ गए, उन्हें भी कम से कम अंग्रेज़ी स्टाइल का THANKYOU तो कहना ही पड़ेगा, आखिर सीखे हुए मैनरज़ की इज्ज़त दाँव पर है ।शायद इस थैंक्यु की आड़ में उनके इकलौते आगमन को देखकर हमारे दिल से निकली यह आह छिप जाए---

वो आए हमारे घर ,खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको,कभी अपने घर को देखते है ।

अब उनका भी क्या कसूर । आजकल पिज्जा,बरगर,डिब्बा-बंद और टैटरा-पैक का ज़माना है सो हमने तो मन को समझा लिया है कि समय का फेर है, बाज़ार में उत्पादनों का ढेर है और प्रतिष्ठित ब्राण्ड नई कम्पनी पर सवा सेर है। इसलिए जो नहीं है उसे भूलो औऱ अंटी का माल टटोलो। काफी हिसाब-किताब किया तो पाया कि लगभग 40 से 50 लोगों ने रोज़ हमें कृतार्थ किया है। अब इस उपलब्धि को देख हम स्वयं को माँ अन्नपूर्णा की उपाधि तो नहीं दे सकते ,पाँच सितारा होटल में शेफ की जगह लिए आवेदन भी नहीं भर सकते,ढाबे के काके से पंजा लड़ाना भी मुश्किल है पर रत्ना की रसोई को सुचारू रूप से चलता गृह-उद्योग मान अपनी पीठ तो ठोंक ही सकते है आखिर बुज़ुर्गों ने कहा है अपना सम्मान स्वयं करें और क्योंकि यह भी कहा है कि शुभ सोचने से शुभ होता है अत: अपने उज्जवल भविष्य की कल्पना में यह सोचना भी हमारा धर्म हो जाता है कि हमारा उद्योग आकाश की ऊंचाईयां को छू रहा है, हम सम्मानित किए जा ऱहे है,जगह जगह चर्चे हो रहे है औऱ कोई भावी ब्लागर किसी साथी ब्लागर की तारीफ़ में कह रहा है--- “ आप बहुत बढ़िया लिखते है। आपकी रचना में रत्ना जी के लेखन की झलक है।”

अरे भई, वाह! उस आनन्दमयी समय की क्या सुखद है अनुभूति !

आप हैरान हो रहे है,हँस रहे है ?-

चलिए छोड़िए, सपने सजाना और हवाई किले बनाना तो बड़ी हिम्मत का काम है,वो भी सबके सामने, ये तो औरतों की कला है,मर्द बेचारे क्या जाने सपने सजाना,वो तो चैन से सो भी नहीं सकते। वो लोग तो गाल़िब के सुर में सुर मिला यही कहते है---

हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गाल़िब यह ख्याल अच्छा है ।।

Wednesday, July 12, 2006

देखा मैंने उसे इलाहाबाद-लखनऊ पथ पर

इलाहाबाद-लखनऊ मार्ग में ढेरों रेलवे क्रोसिंग पड़ती है ।अनगनित बार हम इस रास्ते को नाप चुके है पर एक बार भी ऐसा नहीं हुया कि सभी क्रोसिंग खुली मिली हों ।किसी न किसी क्रोसिंग पर ब्रेक ज़रूर लगती है और गाड़ी रुकते ही चना-चबेना या मूंगफली के पैकिट पकड़े,खीरा- ककड़ी और मौसमी फलों को डलिया में सजाए, पास ही अंगीठी पर भुनते भुट्टों का गुलदस्ता हाथ में थामें,बच्चों की कई जोड़ी उत्सुक आँखें कार के शीशे से चिपक अंदर तक झांक जाती है । महानगरों में टरैफिक लाइट पर इससे मिलता-जुलता नज़ारा आप रोज़ देखते होंगे और यह दृश्य इतना आम है कि बातचीत, सोच-विचार,किताब,अखबार, मोबाइल या लैप-टाप में मशगूल आप उनकी उपस्थिती से बिल्कुल अन्जान बने बैठे रहते है । परन्तु एक बार जो हमारी गाड़ी इलाहाबाद से पचास किलोमीटर दूर कुण्डा की क्रोसिंग पर रुकी तो डराइवर की घुड़की,गनर की वर्दी और छत कीी लाल-बत्ती को नज़र-अन्दाज़ करता हुया, आत्म विश्वास से भरपूर एक दस- बारह साल का बच्चा,पिछली सीट पर विराजमान, शीशा खोल सिगरेट का आनन्द लेते पतिदेव, से बोला----
बच्चा- पहाड़े सुनेंगे ?
पति- किसका जानते हो ।
ब०-- मुझे तो सबे आते है, तुमे जो याद है वो सुना दूं ।
प०-- चलो , १९ का सुनाओ
बच्चे ने बिना अटके पूरा पहाड़ा सुना डाला ।
प०-- अब १७ का सुनाओ ।
ब०- ऐसे मुफ्त में क्यों सुनाऊं,दो रुपये दोगे ?
पतिदेव की उत्सुकता जाग चुकी थी सो बोले,' जितने सुनाओगे हर एक का दो रूपया दूंगा ।
उस चतुर नन्हे सेल्सज़मैन ने फटाफट 18 से लेकर 2 तक सारे पहाड़े सुना डाले और फिर बोला ः उल्टे सुनाऊ तो क्या देंगे (2*9=18,2*8=16,2*7=14---- )
मोल-भाव तीन रुपये पर तय हुया ।
19 और 18का पहाड़ा उसने उसी तत्परता से उल्टा सुना दिया ।
पूछने पर किससे और कहाँ सीखा तो जवाब मिला-- खुदै सीखा है ।
पतिदेव ने 50 का नोट थमाते हुये कहा,-सब रखलो ,इनाम है ।
इस पर बच्चे ने पूरे अमिताभ बच्चन के अन्दाज़ में कहा -- साहिब मुझे मेरी मेहनत का पैसा दें,इनाम-विनाम मैं नहीं लेता ।
पति-- क्या काम करते हो ?
बच्चा-- गियान ( ज्ञान ) बेचता हूँ ।
और इससे पहले कि हम कुछ ओर पूछते वो किसी दूसरे ज्ञान के खरीददार की खोज में गाड़ियों की भीड़ में खो गया था। अनूप जी ने जब जानवर चराते उस बालक का जिक्र किया तो मेरे दिमाग में इस नन्हे सूरमा की तस्वीर कौंध गई और उसका आप सब से परिचय कराने का मन हुया । जब भी वहां से गुजरती हूँ तो नजरें उसे खोजती है ताकि मै उस ज्ञानी के विषय में कुछ और ज्ञान बंटोर सकूं ।

Tuesday, July 11, 2006

बाल-कविताएं

१. नन्ही मुन्नी

चिल्लाती है नन्हीं मुन्नी
मम्मी-मम्मी औ री मम्मी
मैंने काटी नहीं चिकोटी
फिर भी भैया खींचे चोटी
अब देखो है मुझे चिढ़ाता
तान अँगूठा मुँह बिचकाता
मुझसे अपना काम कराता
संग अपने पर नहीं खिलाता
जल्दी से इसको समझाओ
चाहे तो इक चपत लगाओ
पर पापा से कुछ नहीं कहना
आखिर मैं हूँ इसकी बहना ।।




२. रवि बेचारा, काम का मारा

सुबह होने को आई है
हल्की सी तरूणाई है
काला कंबल फैंक रवि ने
ली पहली अंगड़ाई है
अभी उठ कर मुस्काएगा
चाँद सा मुख दिखलाएगा
धुली धूप को धारण कर
काम पर फिर लग जाएगा
किरणों को बिखराएगा
रस्तों को चमकाएगा
देहरी देहरी दस्तक देकर
घर-घर में घुस जाएगा
ओस की परत हटाएगा
कलियों को महकाएगा
जीवन को जीवित रखने में
अपना कर्त्तव्य निभाएगा

जब पहर दूसरा आएगा
वो उकता कर झुंझलाएगा
नाक चढ़ा और भंवें सिंकोड़
धीरे धीरे गर्माएगा
घूरेगा, धमकाएगा
कहीं लू की चपत लगाएगा
धरती के रोने सुबकने पर
वो पिघल के कुछ नरमाएगा
मन ही मन अकुलाएगा
खिसियाकर आँख झुकाएगा
सांझ की मीठी घुड़की सुनकर
कोने में छिप जाएगा
हाय, कोई न उसे मनाता है
थक टूट कर वो घर जाता है
इक आग को सीने में भर कर
रोज़ खाली पेट सो जाता है

Thursday, July 06, 2006

नानी से नातिन तक--पूर्णचक्र

( 1)

मेरी नानी सुघड़ नारी
उसकी सीमा चार दिवारी
खिड़की के परदे से तकती
खुद से खुद ही बातें करती
आँचल पीछे नयन छुपाए
बात बात में नीर बहाए
अपने मन के सूनेपन से
जब कभी डर कर घबराती थी
मेरी माँ के रूप में उसको
एक किरण सी दिख जाती थी
बेटी के नवजीवन खातिर
वो घर से बाहर आई थी
खुद तो थी पराधीन मगर
"भारत छोड़ो" चिल्लाई थी ।

(2)

नानी के पदचिन्हों से आगे
माँ ने कदम बढ़ाया था
स्वयं को स्वाधीन कराने का
बीड़ा उसने उठाया था
अपने पर्दे को आग लगा
उसने मशाल बनाई थी
बेटी को भी जीने का हक है
ये गुहार लगाई थी
बेटे का हर हक उसने
बेटी को भी दिलवाया था
पूर्ण शिक्षा दे उसका
आत्म-सम्मान जगाया था

(3)

नानी और माँ के यत्नों की
फ़सलें अब फल लाई थी
स्वतन्त्र सभ्य समाज में
मैं खुली सांस ले पाई थी
जीवन पथ पर सहचर बनकर
पति का हाथ था थामा
अपना हर कर्तव्य निभा कर
हर अधिकार था मांगा
मेरी बगिया में महके थे
साँझी इच्छा से फूल
साँझी खुशियां साँझे मसले
साँझे जीवन के शूल
(4)

चाहत थी बेटी भी पाए
ऐसा समृद्ध संसार
काश यहीं पर रुक जाए
प्रगति की रफ़्तार
काल-चक्र पर कहां रुका है
समय से सब सदा हारे
बेटी की आँखों मे बस गए
नभ के कई सितारे
अम्बर को छूने की धुन में
उड़ी जो उँची उड़ान
भूल गई वो अपना घर
तन्हा रह गई सन्तान
उसकी बेटी अब चाहती है
केवल एक अधिकार
पल भर माँ का साथ मिले
पल भर माँ का प्यार
अपना हर हक पाने को
जो माँ रहती हरदम तैयार
अहम् उन्नति में वो भूली
बेटी का मौलिक अधिकार

(5)

मेरी नातिन सुन्दर प्यारी
उसकी सीमा चारदिवारी
टी.वी के पर्दे से तकती
कम्प्यूटर से बातें करती
मोटा चश्मा नयन लगाए
बात बात में नीर बहाए
अपने घर के सूनेपन से
उकता कर जब चिल्लाती है
नातिन के रूप में थकी हारी नानी
नज़र मुझे क्यो तब आती है ।

Saturday, July 01, 2006

चोर चाहें या चित्तचोर चाहिए

( १ )

है तारों की छांव
चोरी से दबे पांव
खिड़की या झरोखे से
अंधेरे में धोखे से
घर आँगन में कोई आता है
कुछ खट् से खटक जाता है
टूटते है सपने
याद आते है अपने
रुक जाती है सांसे
पथराती है आँखें
सन्नाटा सा छाता है
घर आँगन में कोई आता है
डरा कर धमका कर
हर तरह से सता कर
करके सीनाज़ोरी
धन करता है चोरी
हंगामा हो जाता है जो
घर आँगन में कोई आता है

(२ )

है सपनों का गांव
धीरे से दबे पांव
पलकों के झरोखे से
यकायक किसी मौके से
मन आँगन में कोई आता है
दिल धक् से धड़क जाता है ।
जगते है सपनें
बिसरते है अपने
गर्माती है सांसें
लजाती है आँखें
अजब नशा छाता है
मन आँगन में कोई आता है
भरमा कर रिझा कर
बहला कर फुसला कर
करके चिरौरी
दिल करता है चोरी
कोई शोर न मचाता है जो
मन आँगन में कोई आता है

( ३ )

धन जो चला जाएगाा
लौट के फिर आएगा
दिल जो कोई गंवाएगा
वापिस उसे न पाएगा
तो फिर क्यों हम
धन चोर से घबराते है
और चित्त चोर पर
सब लुटाते है