कहने को यह घर है मेरा, अपना कोना कोई नहीं
सेज सजी है फूलों से पर, नरम बिछौना कोई नहीं
दिल में दर्द छुपा है बेहद, आँखें खुल कर रोई नहीं
जाने क्यों मुझे पड़ी काटनी, वो फ़सलें जो बोई नहीं
जिनके तन का टुकड़ा थी,मैं उनके लिए पराई थी
श्वसुर गृह के लिए सदा ही,दूजे घर की जाई थी
बरसों तक इक नाम को लेकर, मैंने पहचान बनाई थी
वो पहचान क्यों सप्तपदी की सीमा लांघ न पाई थी
प्रकृति ने मुझको सोंपा था, वंश वृद्धि का अदभुत काम
किन्तु जुड़ा न वंशावली संग, उसकी जन्मदाती का नाम
आश्रय दान के बदले में मुझसे छिन गए अधिकार तमाम
अपनी सींचित सन्तानों को , दे न पाई मैं अपना नाम
देवी का दर्जा तो मिला, पर देवी का सम्मान नहीं
शायद नारी में अपना किंचित सा भी स्वाभिमान नहीं
उद्वेलित मन के लावे में क्यों आता उबाल नहीं
धैर्यधारिणी के भीतर कहीं छुपा तो कोई भूचाल नहीं ।।
Thursday, May 11, 2006
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
अरे भई, यह रसोई मे क्या पकने लगा. नारी मनोभावों का गहरा चित्रण, बहुत सी वेदना लिये यह भाव बहुत मर्मस्पर्शी हैं.
समीर लाल
हृदय को छू लेने वाली नारी मनोभावों का सतीक चित्रण करती बेहद प्यारी कविता है, अनेकानेक बधाइयाँ
नारी (खास तौर पर भारतीय) की स्थिती का यथार्थ चित्रण आपने कविता के माध्यम से बखुबी किया है, संजय लीला भंसाली जैसे कई लोग अपने नाम के साथ अपनी माँ का नाम लगा ही रहे हैं।
आपकी इस कविता में लय भी है और भावनाओं की गहराई भी ! ये पंक्तियाँ खास तौर पर पसंद आयीं !
देवी का दर्जा तो मिला, पर देवी का सम्मान नहीं
शायद नारी में अपना किंचित सा भी स्वाभिमान नहीं
उद्वेलित मन के लावे में क्यों आता उबाल नहीं
धैर्यधारिणी के भीतर कहीं छुपा तो कोई भूचाल नहीं ।।
धन्यवाद ।
बहुत अच्छी कविता लिखी। बधाई!
बहुत बढ़िया रत्ना जी।
Post a Comment