( 1)
मेरी नानी सुघड़ नारी
उसकी सीमा चार दिवारी
खिड़की के परदे से तकती
खुद से खुद ही बातें करती
आँचल पीछे नयन छुपाए
बात बात में नीर बहाए
अपने मन के सूनेपन से
जब कभी डर कर घबराती थी
मेरी माँ के रूप में उसको
एक किरण सी दिख जाती थी
बेटी के नवजीवन खातिर
वो घर से बाहर आई थी
खुद तो थी पराधीन मगर
"भारत छोड़ो" चिल्लाई थी ।
(2)
नानी के पदचिन्हों से आगे
माँ ने कदम बढ़ाया था
स्वयं को स्वाधीन कराने का
बीड़ा उसने उठाया था
अपने पर्दे को आग लगा
उसने मशाल बनाई थी
बेटी को भी जीने का हक है
ये गुहार लगाई थी
बेटे का हर हक उसने
बेटी को भी दिलवाया था
पूर्ण शिक्षा दे उसका
आत्म-सम्मान जगाया था
(3)
नानी और माँ के यत्नों की
फ़सलें अब फल लाई थी
स्वतन्त्र सभ्य समाज में
मैं खुली सांस ले पाई थी
जीवन पथ पर सहचर बनकर
पति का हाथ था थामा
अपना हर कर्तव्य निभा कर
हर अधिकार था मांगा
मेरी बगिया में महके थे
साँझी इच्छा से फूल
साँझी खुशियां साँझे मसले
साँझे जीवन के शूल
(4)
चाहत थी बेटी भी पाए
ऐसा समृद्ध संसार
काश यहीं पर रुक जाए
प्रगति की रफ़्तार
काल-चक्र पर कहां रुका है
समय से सब सदा हारे
बेटी की आँखों मे बस गए
नभ के कई सितारे
अम्बर को छूने की धुन में
उड़ी जो उँची उड़ान
भूल गई वो अपना घर
तन्हा रह गई सन्तान
उसकी बेटी अब चाहती है
केवल एक अधिकार
पल भर माँ का साथ मिले
पल भर माँ का प्यार
अपना हर हक पाने को
जो माँ रहती हरदम तैयार
अहम् उन्नति में वो भूली
बेटी का मौलिक अधिकार
(5)
मेरी नातिन सुन्दर प्यारी
उसकी सीमा चारदिवारी
टी.वी के पर्दे से तकती
कम्प्यूटर से बातें करती
मोटा चश्मा नयन लगाए
बात बात में नीर बहाए
अपने घर के सूनेपन से
उकता कर जब चिल्लाती है
नातिन के रूप में थकी हारी नानी
नज़र मुझे क्यो तब आती है ।
Thursday, July 06, 2006
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6 comments:
बहुत अच्छी कविता लगी। धन्यवाद
पाँच पीढियों का दर्द समेट दिया रत्ना जी, वाह वाह।
बहुत खूब ! यही सच्चाई है
बहुत बढ़िया कविता है, रत्नाजी
"नातिन ......नानी नज़र मुझे तब क्यूँ आती है" वाकई! बहुत सुंदर।
प्रेमलता
पीढ़ियों की कहानी, चंद पंक्तियों की जुबानी ! सचमुच बहुत सुंदर !
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