बालक बूढ़ा एक समान
सुन कर मैं रह गई हैरान
जीवन की यह उगती भोर
वह जीवन का अन्तिम छोर
झलके इसमें शैशव काया
उसमें बढ़ती उमर का साया
इसका हर पग है विजय-गाथा
वो डर से न कदम उठाता
इसकी आँखें स्वप्न सजाएं
टूटे सपने उसे रुलाएं
वृद्ध की चीख पीड़ा की आह
किलकारी में है उत्साह
नित नए नाते नन्हा जोड़े
वृद्ध हर रिश्ते से मुँह मोड़े
होता क्षण-क्षण यह स्वाधीन
पल पल वो बनता पराधीन
यहाँ दिखती जीवन की आशा
मृत्यु भय से वहाँ निराशा
यह है सुन्दर सुख की सूरत
दुख की वो है असली मूरत
कह मन कैसे लूँ मैं मान
बालक बूढ़ा एक समान
Saturday, July 15, 2006
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3 comments:
आपकी हर कविता एक से बढ़ कर एक होती है ! बहुत सुंदर तुलना की है आपने !
हाँ, टंकण की कुछ गलतियाँ सुधार लें !
बड़ती बढ़ती
मृत्यू मृत्यु
स्वपन स्वप्न
धन्यवाद मनीष जी ,तारीफ और भूल सुधार दोनों के लिए ।
ये कवीता बहुत पसंद आई मुझे
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