बहुत सालों से उपहार में मिली डायरियों का सद्-उपयोग ( ??? ) हम मन की भड़ास निकालने केलिए करते थे पर जब पतिदेव के एक मित्र ने, जो कम्प्यूटर के महारथी और कई ब्लागों के स्वामी है हमें ब्लागिंग का गुरूमन्त्र दिया तो मानो बन्दर के हाथ झुनझुना लग गया। हम भूख-प्यास भूल ब्लागस्पाट की ट्रैक पर सरपट दौड़ पड़े, कीर्तिमान बनाया, वज़न भी घटा लिया क्योंकि कुछ तो ऊपरी माला का फालतू समान घट रहा था और कुछ की-बोर्ड पर ओवर-टाइम करते हाथ हर समय मुँह में छुट-पुट डालने में असमर्थ थे। यानि हर काम सुचारू रूप से चल रहा था और हम आम के मौसम में गुठलियों के दाम भी वसूल रहे थे कि एक धमाका हुया -- ब्लागस्पाट के इलाके में कर्फ़्यु लग गया और उस ओर जाने वाली सब गाड़ियां बंद । अक्षरग्राम/नारद के जंक्शन पर खड़े हम काफी देर वर्डप्रेस की ट्रैक पर दौड़ती गाड़ियों को टुकुर-टुकुर देखते रहे और फिर एक गाड़ी पकड़ उस पौश इलाके का जायज़ा लेने वर्डप्रेस के स्टेशन पर पहुँच गए । स्टेशन पर पैर धरते ही चट नाम पूछा गया और पट एक फ्लैट हमारे नाम कर दिया गया,वो भी फ्री में। हम खुश- वाह भई ! ऊँची दुकान, मालिक मेहरबान और फ्री का सामान। सच में उपभोक्ता का ज़माना है। काश हम उस समय अपने सितारे पढ़ पाते क्योंकि उस पल के साथ ही शुरू हुया हमारा एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे में गिरने निकलने का कष्टमयी सफर ।
प्रथम चरण------
फ्लेट मिलते ही हमें पता चला कि अन्दर तभी जा पाएंगे जब मेल बाक्स से कुंजी(password ) लेकर आएगें । खुशी-खुशी भागते हुए कुंजी लेकर वापिस पहुंचे पर बार बार लगाने पर भी ताला बंद और दरबान का सपाट सा जवाब " incorrect password ” । दो चार बार मेलबाक्स घूम आए पर मामला वही ढाक के तीन पात । बड़ी देर बाद समझ में आया जिसे हम " ओ ” पढ़ रहे थे वो वास्तव में जीरो था। राम-राम करते प्रवेश किया और तुरन्त ताला बदला ,एक बार चेक किया और जब बिना अड़चन ताला खुला तो हमने घर का जोगराफिया समझना शुरू किया ।
यहाँ कैटेगरी की क्यारी थी जिसमें हम अलग-अलग सब्जियां बो सकते थे । उनका import और Export भी कर सकते थे ।ब्लागस्पाट पर केवल पोस्ट लिखते थे यहां पेज भी लिख सकते थे । दोनों में फर्क क्या है पल्ले नहीं पड़ा पर सोचा चलो धीरे धीरे पता चल ही जाएगा। State of artका इलाका था सो भाषा भी हाई-फाई थी। एडिट को मैनेज़,Comment करने को Discussion करना और ब्लाग को Site कहा जाता था खैर Accent बदलने मे कितना वक्त लगता है ,साल भर अमरीका में रहकर आई बलिया की बिल्लो जब अमरीकन स्टाइल में अंग्रेज़ी बोल सकती है तो हम Edit को Manage क्यों नहीं कह सकते । अँग्रेज़ी मे M.A कोई ऐवें ही थोड़े किया है । बढ़िया इलाके में सब सुविधायों से युक्त घर मिला है अभी कुछ बदलाव करने की ज़रूरत नहीं है बस जल्दी से कुछ मीठा पका कर नारद जी को न्योता दे आएं ,यह सोच हमने अपनी शान में कुछ कसीदे लिखे (हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं------) ,सावन की डिश पकाई और नारद जी को नए घर का पता दे आए । बड़ी देर तक जब नारद जी के दर्शन नहीं हुए तो यह लगा कि एक तो हिन्दी जगत् का बोझ ऊपर से अभी- अभी भारत यात्रा से लौटे है । आजकल ग्रह-प्रवेश के न्योते भी ज्यादा ही मिल रहे है कहीं बिज़ी होंगें। देर सवेर हो ही जाती है आएंगें ज़रूर। आखिर हम उनके पुराने भक्त है। यह सोच कर इन्तज़ार करते करते रात के एक बजे आँख झपक गई और सपना देखा कि हमारे ढाबे पर लोगों की लम्बी लाइन लगी है। नारद जी सान्ताक्लाज़ की तरह गुपचुप ढाबे की चिमनी से प्रगट हो काली घनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए पकवान का आनन्द ले टिप्पणी के खाली मोज़े में बढ़िया सा गिफ्ट डाल कर जा रहे है ।
इति प्रथम चरण समाप्त
Thursday, July 27, 2006
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7 comments:
गृह प्रवेश पर बधाई। आप गद्य क्या धांसू लिखती हैं। इसी को जारी रखिये। कविता कुछ कम करिये ना!
vaah, accha likha hai...:-)
मस्त है। आनंद आयो।
अनूप जी की बात का शत-प्रतिशत समर्थन करता हूँ, रत्ना जी। आजकल हिन्दी चिठ्ठे पढ़ते-पढ़ते ये "ऐवें" शब्द ही नया पता चला!
बढिया , आगे क्या हुआ ?
वाह! रत्नाजी वाह!
कभी आपकी कविता का पलड़ा भारी लगता तो कभी गद्य का, पर सच में कोई हलका नहीं है। बहुत सुंदर लिखती हैं। शुभकामनाएँ।
-प्रेमलता
भई हम तो यहाँ पर टिप्पणी कर दिए थे:
http://soniratna.wordpress.com/2006/07/20/dhabha/#comment-5
अब ये आपका ढाबा नही है तो किसका है?
रत्ना जी, किसी भी एक जगह पर लगातार लिखिए, अथवा दोनो ब्लॉग मे से किसी एक का नाम बदल दीजिए,ऐसे काफ़ी कन्यूजियन हो रहा है भई।
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