Saturday, July 01, 2006

चोर चाहें या चित्तचोर चाहिए

( १ )

है तारों की छांव
चोरी से दबे पांव
खिड़की या झरोखे से
अंधेरे में धोखे से
घर आँगन में कोई आता है
कुछ खट् से खटक जाता है
टूटते है सपने
याद आते है अपने
रुक जाती है सांसे
पथराती है आँखें
सन्नाटा सा छाता है
घर आँगन में कोई आता है
डरा कर धमका कर
हर तरह से सता कर
करके सीनाज़ोरी
धन करता है चोरी
हंगामा हो जाता है जो
घर आँगन में कोई आता है

(२ )

है सपनों का गांव
धीरे से दबे पांव
पलकों के झरोखे से
यकायक किसी मौके से
मन आँगन में कोई आता है
दिल धक् से धड़क जाता है ।
जगते है सपनें
बिसरते है अपने
गर्माती है सांसें
लजाती है आँखें
अजब नशा छाता है
मन आँगन में कोई आता है
भरमा कर रिझा कर
बहला कर फुसला कर
करके चिरौरी
दिल करता है चोरी
कोई शोर न मचाता है जो
मन आँगन में कोई आता है

( ३ )

धन जो चला जाएगाा
लौट के फिर आएगा
दिल जो कोई गंवाएगा
वापिस उसे न पाएगा
तो फिर क्यों हम
धन चोर से घबराते है
और चित्त चोर पर
सब लुटाते है

6 comments:

Pratik Pandey said...

रत्ना जी, बहुत सुन्दर कविताएँ हैं। आपने चोर और चितचोर में साम्य और वैषम्य बखूबी दर्शाया है।

संजय बेंगाणी said...

वाह !
आपकी रसोई का यह पकवान बहुत ही यमी... हैं.

प्रेमलता पांडे said...

धन और मन की समानांतर रेखाएँ! वाह!
प्रेमलता

आलोक said...

धन जो चला जाएगाा
तो क्यों फििर मन

ठीक कर लें -
धन जो चला जाएगा
तो क्यों फिर मन

ई-छाया said...

बहुत सुंदर, बहुत ही सुंदर।

Manish Kumar said...

आप की लेखनी बहुत सुंदर मोती उगल रही है इन दिनों ! बहुत खूब !